Book Title: Vrundavanvilas
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Hiteshi Karyalaya
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वृन्दावनविलास
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. पावै चारों अनंता निजगुन अमलानंद वृंदा धरा है।। * ताकी काया अछाया अनुपम पगपै पुष्पका नग्धरा है ॥५५॥
चित्रलेखा ( मभनययय) , जैनीवानी अमल अचल है दोषकी नाशनी है।'
सोई मोकों परम धरम दे तत्त्वकी मासनी है ॥ बाकी जेते जगत जननसों है चला मार्ग भेखा।।
तामें देखा कथन अमिलते दोषमें चित्रलेखा ॥
शिखरिणी ( यमनसमलग) जहां कोई प्रानी चढ़त गुणथाने उपशमी ।
गिरै आवै नीचे सुमगमहँ सम्यक्त्वहिं वमी ॥ तहां द्वेषा धारा बहत निज भावें विवरिनी। दही मीठा खाई वमनसमये ज्यों शिखरिनी ॥
शार्दूलविक्रीड़ित (मसजसततग) मोसों जी सततं गुरुगन जती ये कर्मशत्रू टरे । * सोई आप उपाय शीघ्र करिये हो दीनबंधू वरे ॥ - आपी स्वर्गपवर्ग देत जनको रक्षा करो प्रीढ़ित। । ____ आपी सर्व कुवादि जीति भगवन्शार्दूलविक्रीड़ितें ॥
इति गणछन्दप्रकरण । १इस उदाहरणमें छन्दका लक्षण भी दे दिया है। माय मोमो जी सततं गुये इस छन्दमें जौ २ गण है, उनके सूपक मा . क्षर है। मोसे मगण सोस सगण आदि अमन लेग नाहिन ।
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