________________
वृन्दावनविलास
होली। भविजन चले है जजन जिनधाम । भवि० ॥ टेक ॥ * आठ दरव अनुपम सब सजि सजि, भूषन वसनललाम ।भवि०१॥
बाजत तालमृदंग झाँज डफ, गावत जिनगुनग्राम । भवि०॥२॥ * भावसहित जिनचंद वृंद जजि, वरनेको शिववाम । भवि०॥३॥
* काहे सुरति विसारी प्रभु मेरी, काहे सुरत विसारी हो। टेक। वेद पुरानमाहिं यह सुन नुति, तुम मविजनभयहारी हो। तातें शरन चरनकी आयो, लीजे मोहि उबारी हो ॥ १ ॥ मोहि एक अवलंब आपको, सो तुम जानत सारी हो। * मेरी बार अबार करनका, कारन क्या त्रिपुरारी हो ॥२॥ जदपि आप शिवधाम वसे हो, अमल अचल अविकारी हो। तदपि दासकी आश सकलविधि, पुजवत हो सुखकारी हो। पावकतें जल सुमन सांपते, निर्धनतें धनधारी हो। *ती-पत श्रीपत राख लियो तुम, दीपत सभामझारी हो ॥ank
अंघ विलोकत मूक अलापत, बधिर सुनत श्रुति सारी हो। * कूकर शूकरको सुरसंपति, आप तुरत विस्तारी हो ॥ ५॥ । * मै हूं दीन दीनबंधू तुम, दुरिताताप निवारी हो।
वृंद कहै मम पीर निवारो, हो मुदमंगलकारी हो ॥६॥
-
१न जाने क्यों मूलप्रतिमें यह पद लिखकर फिर सफेदेसे ढक दिया । गया है। २ यह पद भी लिखकर काट दिया गया है। स्त्रीकी मर्यादा।।