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में सफलता प्राप्ति के लिए उनकी नितान्त आवश्यकता होती है। अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह आदि जैसे गुण व्यक्ति के जीवन को स्वर्ग बनाने में समर्थ हो सकते हैं। वसुनन्दि ने उसे “विसुद्धमति' वाला कहा है (२०५) जो सदाचरणता को द्योतित करता है। इसी को अणुव्रती भी कहा जाता है।
श्रावकाचार के प्रकारों के आधार पर साधारणत: जैन श्रावक की तीन श्रेणियाँ बतायी गयी है: पाक्षिक, नैष्ठिक और साधक।' चर्या नामक चौथा भेद भी इसमें जोड़ा गया है। पर इसे पाक्षिक श्रावक के अन्तर्गत रखा जा सकता है, अहिंसा पालन करने वाला श्रावक “पाक्षिक' कहलाता है। श्रावकधर्म का सम्यक् परिपालन करने वाला श्रावक “नैष्ठिक" कहलाता है और आत्मा के स्वरूप की साधना करने वाला श्रावक . “साधक' कहलाता है। आध्यात्मिक साधक की दृष्टि से श्रावक के ये तीन वर्ग अथवा सोपान हैं। इनको जघन्य, मध्यम और उत्तम श्रावक भी कहा गया है।६ श्रावक के ये भेद परिनिष्ठित रूप में समझना चाहिए।
व्यक्ति श्रावक की इन तीनों अवस्थाओं का परिपालन यदि सही रूप से करता है तो वह ऋषियों से भी अधिक पवित्र माना गया है। श्रावक धर्म का पालन करने वाला वस्तुत: वही हो सकता है जो न्यायपूर्वक धन कमाने वाला हो, गुणों को, गुरुजनों को तथा गणों में प्रधान व्यक्तियों को पूजने वाला हो, हित-मित तथा प्रिय वक्ता हो, धर्म-अर्थ-काम रूप त्रिवर्ग को परस्पर विरोध रहित सेवन करने वाला हो, त्रिवर्ग के योग्य स्त्री, ग्राम और मकान सहित हो, लज्जावान् हो, शास्त्र के अनुकूल आहार-बिहार करने वाला हो, सदाचारियों की संगति करने वाला हो, विवेकी, उपकार का जानकार, . जितेन्द्रिय, धर्मविधि का श्रोता, करुणाशील और पापभीरु हों। २. पाक्षिक श्रावक : आत्मिक उन्नति का पहला कदम
. साधक की यह प्रथम अवस्था है। इसमें वह धर्म के सर्वसाधारण स्वरूप की ओर झुकता है और आगे बढ़ने की पृष्ठभूमि तैयार करता है। आध्यात्मिक साधना की ओर उसका झुकान है इसलिए उसे पाक्षिक कहा गया है। पाक्षिक श्रावक का सर्वप्रथम यह कर्तव्य है कि वह सभी प्रकार की स्थूल हिंसा से निवृत्त होकर अहिंसा की ओर अपने पग बढ़ाये। वैर और अशान्ति को पैदा करने वाली हिंसा, प्राणी के जीवन में कभी सुखदायी नहीं हो सकती। अत: परिवार और आस-पड़ौस में अपनी अहिंसावृत्ति १. सागारधर्मामृत, १.२०. २. चारित्रसार, ४०.४. ३. सा. ध. २.२; चा.सा. ४०.४. ४. सा.ध. ३.१. ५. महा. ३९.१४९; चा. सा.४१.२. ६. चा.सा. ४०.३. ७. कुरलकाव्य, ८.