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प्रतिमा-ग्रहण का कोई पृथक् विधान नहीं है। व्रतों के अभ्यास के बाद यहाँ साधक श्रमण पर्याय में चला भी जाता है और नहीं भी। परन्तु दिगम्बर परम्परा में वह प्रतिभाधारी ही रहता है या मुनि रूप धारण कर लेता है पर व्रतावस्था में लौटता नहीं है। इसलिए उसे वहाँ साधक कहा गया है।
श्रावक इन व्रतानुष्ठानों का परिचालन कर स्वयं के जीवन को परिशुद्ध बना लेता है, साथ ही अपने परिकर में रहने वाले लोगों को एक आदर्श जीवन-सूत्र देता है जिससे समूचे समाज का वातावरण पारस्परिक सेवाकारी, सत्यग्रही और सहिष्णु हो जाता है। सामाजिक सन्तुलन के संदर्भ में यह उसका अमूल्य प्रदेय है। २.१. श्रावक : समाज का संरक्षक
___ श्रावकाचार का तात्पर्य है- गृहस्थ का धर्म। श्रावक (सावग, सावयं) के अर्थ में उपासक और सागार जैसे शब्दों का भी प्रयोग हुआ है। साधक व्यक्ति अध्ययन, मनन चिन्तन अथवा परोपदेश से जब साधना की ओर चरण मोड़ता है तब हम उसे श्रावक कहने लगते हैं। उसके विचार और कर्म की दिशा परम शान्ति और सुख की उपलब्धि की ओर रहती है पारिवारिक, सामाजिक, राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय शान्ति की स्थापना का भी उत्तरदायित्व उसके सबल कंधों पर आ जाता है। इसलिए श्रावकाचार व्यक्ति को आध्यात्मिक क्षेत्र की ओर जाने के पूर्व सामाजिक कर्त्तव्य की ओर खींचता है। और जो व्यक्ति समाजिक कर्त्तव्य को पूरा करता है वह आत्मकल्याण तो करेगा ही, साथ ही मानवता का भी अधिकतम उपकार करेगा। श्रावक का अर्थ भी यही है कि जो आत्मकल्याणकारी वचनों का श्रवण करे वह श्रावक है। श्रावक प्रज्ञप्ति में भी कहा गया है कि सम्यग्दर्शन आदि से युक्त जो व्यक्ति प्रतिदिन यतिजनों के समीप साधु और गृहस्थों के आचार का प्रवचन सुनता है वह श्रावक है
संपत्तदंसणाई पयदियह जइ जण सुणेई य।
सामायारिं परमं जो खलु तं सावगं विन्ति।। आशाधर ने श्रावक उसे माना है जो पंच परमेष्ठी का भक्त हो, दान-पूजन करने वाला हो, भेदविज्ञान रूप अमृत को पीने का इच्छुक हो तथा मूलगुणों और उत्तरगुणों का पालन करने वाला हो। इस प्रकार श्रावकों का कर्तव्य धर्मश्रवण और उसका परिपालन, दोनों हो जाते हैं।
१. शृणोति गुर्वादिभ्यो धर्ममिति श्रावक : सागार धर्मामृत, १.१५; सावय पण्णत्ति,
गाथा २; सागर-धर्मामृतटीका १.१५; हरिभद्रसूरि ने धर्मबिन्दु (१) में
'गृहस्थधर्म' को ही श्रावकधर्म कहा है। २. सागारधर्मामृत, १.१५.