Book Title: Valmiki Ramayana Pada Suchi Part 1
Author(s): Govindlal H Bhatt
Publisher: Oriental Research Institute Vadodra

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Page 88
________________ अहो त्वं कर्णिकाराद्य III. 60.20a. अहो दशरथ राजा II. 49.7a अहो दीप्तमहातेजाः VI. 59.26c अहो दुःखमहो कृच्छ्रम् II. 12.79a अहो दुर्वृत्तमास्थाय VII. 4.1ga अहो धिगिति निःश्वस्य II. 57.1IC अहो धिगिति सामर्षः II. 12.5c अहो धिग्धिकृतमिदम् V. 34. Ioa अहो धि नाईसे देवि II. 18.28a अहो धिन्निमित्तोऽयम् VI. 92.50a अहो धिङ् मानुषं लोकम् VII. 24.17a अहो निश्चेतनो राजा II. 41.6a अहो बत महत्कर्म III. 30.32a अहो बतेदं नृवराविषह्यम् IV. 24.18a अहो बलमहो वीर्यम् VII. 34.37a अहो भरत सिद्धार्थः II. 103.1oa अहोभिर्दशभिर्ये च VI. 37.12 अहो मीममिदं सत्वम् V. 32.4a अहो मन्यत धर्मात्मा IV. 35.70 अहो महत्कर्म कृतं निरर्थकम् V. 48.50a अहो महात्मा राजयम् II. 6.21a अहो राक्षसराजस्य V. 49.17C अहो रागवती संध्या IV. 30.45c अहो राजसि मन्थरे II. 9.43b अहोरात्रगण गता: V. 35.56d अहोरात्रं च संतोषः II. 28.12a अहोरात्राणि गच्छन्ति II 105.202 अहोरात्राण्यनेकानि VII. 53.17a अहोरात्रे तथा संध्ये II. 25.14c अहोरात्रैस्त्रिभिर: VI. gr.16a अहो रूपमहो धैर्यम् V. 49.17a अहो रूपमहो लक्ष्मीः III. 43.15a अहो लक्ष्मण गह्यं ते III. 57.170 अहो लक्ष्मण सिद्धार्थः II. 40.25a अहो वनमिदं दुर्गम् I. 24.13c ११ Jain Education International ८१ अहो विक्रमशूरस्य III. 27.12a अहो वीर्यमहो दाढर्यम् III. 30.32c अहो वीर्यमहो धृतिः V. 57.47d अहो शाखामृगत्वं ते IV. 2.17a अहो सत्वमहो द्युतिः V. 49.17b अहो सुबलवदक्षः VII. 24.18c अहो सुबलवान्राम: VI. 72.10a अहो सुरमणीयोऽयम् IV. 27.25a अहोऽस्मि परमप्रीतः II. 3.2a अहोऽस्मि व्यसने मग्नः III. 58.17a अहोsस्य विक्रमैौदार्यम् VII. 30.3c अहो स्वप्नस्य सुखता V. 34.20a अहो स्वामिनि ते भक्ति: V. 57.470 अह्नः पञ्चमशेषेण VI. 74.120 अह्नचतुर्थभागेन VI. 126.170 अहा तृतीयेन तथा VI. 22.66a अह्नात्वां प्रापयिष्यामि VI. 121. Sc अह्ना पुत्रशतं जज्ञे III. 66.8c आकराप्रादजिह्मगैः VI. 45.20d आकर्णकृष्टमुक्तेन IV. 76.40a आकर्णपूर्णमायम्य IV. 11.grc कर्णपूरिषुभि: III. 64.64c आकर्णात्स विकृष्याथ VII. 21.41a "" 12 69.33c आकर्णापूरिता शरान् VI. 88.3cb आकर्ण्य वचनं रामः: V. 64.43c आकर्ण्य हृदयाप्रियाम् II. 12.53b आकर्षन्तं विकर्षन्तम् III. 69.32c आकर्षोत्पाटनं भृशम् VI. 76.32f आकाङ्क्षनदयं रवेः II. 5.1gd आकाङ्क्षमाणा रामस्य II. 6. 19c आकारश्छाद्यमानोऽपि VI. 17.64a आकारांस्तानहं सर्वान् II. 71. 360 आकाश इव निर्मलः II. 85.8b आकाश इव निष्पङ्कः II. 34.9c For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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