Book Title: Valmiki Ramayana Pada Suchi Part 1
Author(s): Govindlal H Bhatt
Publisher: Oriental Research Institute Vadodra

View full book text
Previous | Next

Page 159
________________ १५२ एकेनैव निरस्तानि V. 26.12c ए के नोरसि घोरेण III. 69.30a . एकेषुपाते न भयं निपात्य VII. 69.30a एकैकमनुरक्तैश्च IV. 27.20c एकैकमेव योधानाम् VI. 27.47a एकैकं पानपं गुल्मम् II. 55.20a एकैकशो ददौ राजा I.72.22c एकैकस्य धनं ददौ VII. I07.18f एकैकस्यात्र युद्धार्थे VI. 37.18a एकैकस्योपकारस्य VII. 40.23a एकेकस्योपजीवनम् II. 32.24d एकैकानभिविव्याध VI. 90.40c एकैको धरणीतलम् I. 39.18b एकैकं योजनं पुत्राः I. 39.14C , राक्षसं संख्ये VI. 93.14a ,, समलङ्कृताः I. 14.25d एकोऽप्यमात्यो मेधावी II. I00.24a. एकोऽयं राक्षसेन्द्रस्य VI. 89.8a एकोऽथ विमृशेदेकः VI. 6.ga एकोऽहं भक्षयिष्यामि VI. 8.23a एकत्पातेन ते लङ्काम् V. 39.40c एक दयं संप्रतिपद्य विप्राः II. I09.32b एको दशरथस्यैषः II. 5I.IIC 1, , , 86.12c एको धुन्वन्धनुः स्थितः III. 25.3d ,, नानासि राघव II. I00.75b ,, मथितुमोजसा VI. 28.17b ,, रक्षितुमर्हति I. 14.47b ,, वंशकरो वास्तु I. 38.12a ,, हि जायते जन्तुः II. I08.3c ,, हि राजा काकुत्स्थ I. 58.12c ,, ह्यहमयोध्यां च II. 53.25a एकः कस्याः सुतो ब्रह्मन् I. 38.10a ,, कार्याणि कुरुते VI. 6.9c ,, कुलेऽस्मिन्पुरुषो विमुक्तः VI. I5.3c एकः क्षणनेन्द्ररिपुर्महात्मा VI. 69.67c ,, पालयते कुलम् II. I09.15b ,, पालयते लोकम् II. I09.15a ,, सत्पुरुषो लोके II. 48.8a ,, सारथिना सह III. 31.33b ,, स्वर्गे महीयते II. I09.15d एतं दृष्ट्वा प्रहृष्यामि V. 40.70 ,, मे कुरु सुप्राज्ञ II. 90.23c एतच्च कवचं दिव्यम् VI. 71.32b ,, नियतं नित्यम् III. 65.5c पुष्पकं नाम VII. 3.Iga ,, बुद्ध्वा गदितो यथा त्वम् V. 67.44c ,, वचनं श्रुत्वा IV. 12.1a ,, वनमध्यस्थम् III. II.51a ,, सर्व पतिताग्यशूरम् VI. 73.67c एतच्चान्यच्च परुषम् III. 53.25c ,, बहुशः , 23.29c एतच्चैवोभयं श्रुत्वा II. III.23a एतच्छ्रुत्वा कुमारेण IV. 53.20a तदा वाक्यम् VI. 41.33a ,, ,, वाली IV. II.62a तु काकुत्स्थः III. 6.21a ,, कौसल्या II. 4.38a ,, ,, संक्रुद्धः VII. 26.51c ,, दशग्रीवः VI. 32.38a प्रियं वाक्यम् I. 15.15a मया तस्य V.58.18c महातेजाः VI. I05.28a महेन्द्रस्तु VII. 30.49c यमाकारम् VI. 125.14a रहः सूतः I. 9.1a वचस्तस्य IV. 3.25a V. 58.70a विदित्वा च V.58.10a , शुभं वाक्यम् II. 54.27a Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 157 158 159 160 161 162 163 164 165 166 167 168 169 170 171 172 173 174 175 176 177 178 179 180 181 182