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और उनके सिद्धान्त ।
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वंशमें अवतार लेनेका वचन भी दिया है । उनके वंशधरोने १०० सोमयाग भी पूर्ण कर लिये हैं अतः वह वंश अत्यन्त शुद्ध और आपके प्राकट्य ग्रहण करने योग्य है । श्रीमद्भागवत जो कि प्रकारान्तर से मेरा ही स्वरूप है आप उसका भी गूढार्थ प्रकट करें ।
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श्रीमहाप्रभुजीने यह आज्ञा शिरोधार्य की ।
उस समय दक्षिणके कांकरवाड नामक ग्राम में एक विशुद्ध वेल्लनाडु श्रोत्रिय ब्राह्मणोंका कुल निवास करता था । इस वंशके प्रसिद्ध महापुरुष श्रीयज्ञनारायण भट्टजी थे । इननें ३२ सोमयाग किये थे । इनकी निष्ठा पर भगवान् प्रसन्न हुए एवं जब वरदान मांगने को कहा तब श्रीयज्ञनारायण भट्टजीने कहा कि ' दयामय, यदि आप इस दीन पर प्रसन्न हुए हों तो आप एक बार हमारे यहां प्रकट हो नन्दयशोदा के आनन्द का हमें भी अनुभव कराइये | भगवान् ने प्रसन्न होकर 'तथास्तु' कहा और आज्ञादी कि 'तुमारे यहां १०० सोमयाग पूर्ण होनेपर मैं अवतार ग्रहण करूंगा । ' फलतः भगवान् इनके यहां १०० सोमयाग पूर्ण होनेपर श्रीमद्वल्लभाचार्य के स्वरूप में प्रकट हुए।
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आपका प्रादुर्भाव संवत् १५३५ सन् १४७९ के वैशाख कृष्ण एकादशी के मङ्गलमय दिन को रायपुर के समीप चम्पारण्य में हुआ था । आपश्री के पितृचरण श्रीलक्ष्मण