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श्रीमद्वल्लभाचार्य
उनके चरित्रसे जानसक्ते हैं । अपने जीवनमे आपने मठस्थापन विगेरे कोई कार्य नहीं किया । श्रीगोवर्धनधरण का जब प्रादुर्भाव हुआ तो उनका भी कार्यभार बङ्गाली ब्राह्मणों को सौंप दिया । श्रीकृष्णदेव राजा ने जब सुवर्ण दीनारों पर आचार्य सिंहासन स्थापन कर आचार्य कनकाभिषेक किया उससमय भी उसमेंसे केवल मोहर मात्र लेकर प्रभुको समर्पण कर दीं । इस से आप लोग आचार्यश्रीके त्याग संतोष और उपरति गुणोंका अनुमान करसक्ते हैं । निबंध में आप आज्ञा करते हैं कि
धनं सर्वात्मना त्याज्यं तच्चेत्यक्तुं न शक्यते । कृष्णार्थं तत्प्रयुञ्जीत कृष्णोऽनर्थस्य वारकः ॥ गृहं सर्वात्मना त्याज्यं तचेत्यक्तुं न शक्यते । कृष्णार्थं तन्नियुञ्जीत कृष्णः संसारमोचकः ॥
धनमें पंचदश अनर्थ हैं इस लिये सब तरह से धनका त्याग करना चाहिये । वह यदि सर्वथा नहीं ही छोडा जाय तो फिर उसका उपयोग श्रीकृष्ण में ही करै । क्यों कि श्रीकृष्ण अनर्थ के नाश करनेमें समर्थ हैं । घरमें रहने से संसारमें ही ( अहंता ममतामें ) फस जाता है इसलिये गृह का सबतरह त्याग कर दे । और यदि उसका त्याग करना अशक्य हो तौ उसका उपयोग श्रीकृष्ण में करदे । श्रीकृष्ण संसारसे छुडानेवाले हैं ।"