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श्रीमद्वलभाचार्य
का मायावाद अथवा श्रीरामानुजाचार्य या श्रीमध्वाचार्य के वाद भी दोष से मुक्त नहीं हैं । यदि वेद, गीता या ब्रह्मसूत्र का और उनके साथ श्रीभागवतकाभी यथार्थ अनुसरण करता हुआ कोई भी वाद है तो वह ब्रह्मवाद ही है । और निर्दुष्ट है तो वह भी ब्रह्मवाद या पुष्टिमार्ग ही है। खूब वाद होने के अनन्तर सर्व विद्वानों ने आपके एवं आचार्य के विजय को मान्य किया । और सब विद्वानों ने एक मत हो आपको 'महाप्रभु' की पदवी जो राजा से दी गई उसे संगत की । आपके विजय पर राजा आपके चरणों पर गिर पडा और अपने हृदय से उन्हें अपना गुरु मानने लगा । इतनाही नहीं राजाने सर्व प्रजाजनों और विविध देशके सर्व मत के सर्व विद्वानों के सम्मुख श्रीमदाचार्यचरण का कनकाभिषेक किया । यह स्मरणीय घटना १४९३ में घटी जिस समय आपकी अवस्था यौननके पूर्व की थी ! इस समय से आप श्रीवल्लभाचार्य के साथ ही 'श्रीमहाप्रभु' के नाम से भी संबोधित होने लगे । आपने अपनी विजय में जितना भी द्रव्य मिला था उसे केवल अपनी प्रभुसेवामें उपयोगी कुछ अंशको छोडकर ब्राह्मणवर्ग को दान दे दिया था । ऐसा था श्रीमदाचार्यचरण का अपूर्व त्याग और आत्मसंयम !
विद्यानगर से आप पर्यटन करने तथा समस्त भारतवर्ष में अपना ब्रह्मवाद स्थापित करने चल दिये। उस समय
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