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श्रीमद्वल्लभाचार्य ब्राह्मण अजामिल अपने परिवार सहित निवास करता था। उस समय के ब्राह्मण जिस प्रकार नैष्ठिक, कर्मठ और ज्ञानी हुआ करते थे, अभागा अजामिल वैसा नहीं था । कालान्तर में वह ब्राह्मणोचित सदाचार से वंचित हो गया था इसी लिये वह अनाचारी था । जिस द्रव्य का ब्राह्मण सद्व्यय करता है उसी द्रव्य को इस अजामिल ने असत्पथ पर व्यय किया था । इसे न अपने स्वरूप का ज्ञान था और न भविष्य की चिन्ता ही इसे अपने असत्कार्य से विरत कर सकती थी । विषयवासना के समुद्र में डूबा रहता था । भगवान् के नाम रूपी नौका पास खडी थी पर यह हतभाग्य उस की तरफ देखता भी नहीं था। निदान एक दिन, पासी मनुष्य जिसका नाम सुनते ही कांप उठता हैं, दुर्जय मृत्यु इसके सिर पर आ पहुंची । इस अजामिल के दस बालक थे उन में से सब से जो छोटा नारायण था उस पर अजामिल की अत्यन्त कृपा थी । बड़े भयंकर मृत्युदूतों को जब पाश सहित उसने अपने सन्मुख खडे देखे तब इसे बड़ा डर मालुम होने लगा और साथ ही अपने बच्चे कुटुंब को छोडकर चले जाने की दारुण यन्त्रणा उसे सताने लगी । अपने इस अधम जीवन में एक बार बालक नारायण को अन्तिम समय में देख लेने की उसे बड़ी इच्छा हुई और