Book Title: Vallabhacharya aur Unke Siddhanta
Author(s): Vajranath Sharma
Publisher: Vajranath Sharma

View full book text
Previous | Next

Page 387
________________ और उनके सिद्धान्त। २६७ चरण कमल से उत्पन्न होते हुए भी, कालप्रवाहस्य वन जाते है । बहिर्मुख हो कर यदि सेवा की जायगी तो प्रभु कभी भी इसे स्वीकार न करेंगे। क्यों कि फलरूप श्रीकृष्णचन्द्र लौकिक नहीं हैं, वे लौकिक को कभी मानेंगे नहीं। अलौकिक प्रभु को प्रसन्न करने में हमारा भाव ही साधन हो सकता है। प्रत्येक क्षण यह विचार रहना चाहिये कि 'यह सब भगवान् का है । भगवान् श्रीकृष्ण सर्व से पर हैं।' जब भगवान् का सेवक द्रव्योपार्जन में और गृह में ही आसक्त हो जाता है अथवा अपने आप को पुजवाने के लिये प्रयास करने लगता है तब भगवान् उस पर कोपायमान होते हैं । अर्थात् उस समय सेवक बहिर्मुख हो जाता है। जब भगवत्सेवक भक्तिमार्ग का त्याग कर के जननेंद्रिय और उदर तृप्ति के लिये ही उद्यम करता है तब उस में आसुरावेश होता है और भगवान् तब ऐसे बहिर्मुख सेवकों से विमुख हो जाते हैं। अर्थात् सेवक वहिर्मुख हो जाता है । जब भगवत्सेवक को अहंकार होता है और वह शास्त्र अथवा भगवदीयों का अनादर करता है तब भगवान् उस पर कोप करते हैं और वह बहिर्मुख हो जाता है। जब वडे कुल में उत्पन्न हुए भगवद्भक्त अपने कुल की रीति छोडने लगते हैं उस समय उनके स्वामी श्रीकृष्ण उन पर कुपित होते हैं और वे बहिर्मुख जीव को कर देते हैं।

Loading...

Page Navigation
1 ... 385 386 387 388 389 390 391 392 393 394 395 396 397 398 399 400 401 402 403 404 405