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श्रीमद्वल्लभाचार्य है। कृष्णदेव राजा स्वयं भी एक विद्वान् और कवि था। किन्तु जब श्रीशंकराचार्यके अनुयायी श्रीव्यासतीर्थ श्रीशंकराचार्य पतिपादित मायावाद सर्ववादोंमें श्रेष्ठ है यह उपदेश राजाको देने लगे तव राजाने एक ऐसी सभा बुलाने का विचार किया जिसमें भारत वर्षके सब मतके अनुयायी सव विद्वान् निमंत्रित होकर आयें और कौन सा धर्म अथवा वाद श्रेष्ठ है उसका निर्णय करें। फलतः ऐसी ही एक महासभाका आयोजन होने लगा तथा भिन्न २ देशके भिन्न २ विद्वान् भी निमन्त्रित कर बुलाये जाने लगे। जब सब बडे २ विद्वान् उपस्थित हो गये तब राजाने दीनताके शब्दोंमें कहा-"उपस्थित पूज्य और सम्माननीय गुरुवरो, मेरी इच्छा है कि आप लोग कौन सा मत श्रेष्ठ है इसका निर्णय कर मुझे बतलावें ताकि मैं अपना मत उसे ही स्वीकार कर
और अपने जीवन को उसी मार्ग में ले जाऊं।" राजाके इन वचनों को सुन पण्डितोंने शास्त्रार्थ करना प्रारंभ कर दिया । सभामें खूब बडे २ विद्वान् थे अत एव उनका शास्त्रार्थ भी ऐसा वैसा नहीं था अतः यह शास्त्रार्थ बहुत दिन तक चला । अन्तमें जब कि श्रीशंकराचार्य के अनुयायी जीतनेवाले ही थे श्रीवल्लभाचार्यने विजयनगरकी इस सभा में प्रवेश किया । उस समय ऐसा दृष्य उपस्थित हुआ था