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श्रीमद्वल्लभाचार्य
अग्निरूप भूतल पर प्रकटित हुए थे । इसलियें आपकी शरण जानेवालों के सर्वदोष आप निवृत्त कर देते हैं । इसीलियें आपका एक नाम 'वैश्वानर' भी है ।
अन्तःकरण प्रबोध की टीका में लिखा है की भगवान् को स्वरूपवलसे उद्धार करने की उस समय इच्छा नहीं थी । किन्तु आपने अपने वचनामृतों से जीवों का उद्धार करना यह मनमें ठान साधारण मनुष्यवत् देह धारण कर आप श्रीमदाचार्य के स्वरूप में यहां पधारे थे । आप यद्यपि देखने में साधारण मनुष्य मात्र थे किन्तु आप फिर भी श्रीकृष्ण ही थे । यह बात आपके अलौकिक चरित्र से ही भगवदीय जन जान गये थे । भगवान् ने अपना उत्तमोतम भावसौन्दर्य श्रीमहाप्रभुजी में नित्यलीला के रमण समय में पधराया था । श्रीमदाचार्यचरण प्रभु की प्रत्येक लीला का अनुभव करते । मानों प्रभु की लीला का अनुभव करने में साक्षीरूप हो कर आप विराजते थे ।
श्रीमदाचार्यचरण का स्वरूप हमें स्पष्ट रीत्या दिखलाईदे इसके लिये हमारा परम कर्तव्य है कि हम उनकी लीलाका स्मरण सतत करते रहें । हमारे निरन्तर आपके स्वरूप का विचार करने से श्रीमहाप्रभु अवश्य ही हमारे हृदय में पधारेंगे और इसी से हमें आपकी गूढवाणी समझने में सुविधा होगी । इसके लियें हृदय में परम श्रद्धा