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श्रीमद्वल्लभाचार्य है । जिसे वेदशास्त्रोक्त आचारों का ज्ञान न होगा वह आप क्या करेगा और दूसरों को उपदेश क्या देगा । इसलिये आचार्यको वेदशास्त्रोक्त आचारों का ज्ञान तो होना ही चाहिये । इसलिये व्याकरणसे यह सिद्ध होता है कि जो वेदशास्त्र ज्ञाता स्वयं वेदशास्त्रोक्त आचारोंका पालन कर्ता हो और उपदेशके द्वारा लोकसे वैसा आचरण कराता हो वह 'आचार्य।
३-कोषमें लिखा है कि 'मन्त्रव्याख्याकृदाचार्यः' विचारपूर्वक एकसूत्रस्यूत जो मन्त्रोंका विवरण करै अर्थात् वेदवाक्य और वैदिकशास्त्रवाक्यों को वेदसंमत किसी एक सिद्धान्तमें समन्वय करता हुआ मंत्र और तदनुकूल शास्त्रोंका विवरण करे उसे 'आचार्य' कहते हैं। अभिधान कोशमें कहा है कि 'विवृणोति च मन्त्रार्थानाचार्यः सोभिधीयते' वेदमन्त्रके अर्थोंका जो विचार करै वह आचार्य है।
४-आप्तवाक्यभी यही है 'आचिनोति हि शास्त्राणि स्वाचारे स्थापयत्यपि । आचारयति यो लोके तमाचार्य प्रचक्षते ॥ अर्थात् जो वेदशास्त्रोंका आचयन करै । उन्हे वैदिक सिद्धान्तमें समन्वित करै । वेदशास्त्रोक्त आचारोंका अपने आचरणमें स्थापन करे और उपदेश देकर, लोगोंसे उसका आचरण करावै वह 'आचार्य' कहा जाता है । 'ज्ञानोपदेष्टुराचार्यस्य ' इस वाक्यसे श्रीशंकराचार्य श्रीरामानुजाचार्यादिकामी यही तात्पर्य है।