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और उनके सिद्धान्त |
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अन्त है, तर्कका अन्त नहीं । अत एव विचारको प्रामाण्य है तर्कको नहीं । और इसी लिये वेदको प्रमाण माननेवाले विद्वानोने विचारका ही आश्रय लिया है, तर्कका नहीं । मीमांसा वेदवाक्य प्रधान और उपजीव्य होते हैं और विचार उनके तात्पर्यका और सिद्धान्तका उपजीवन करता है । तर्क तर्क प्रधान रहा है और वेदवाक्य उसके पीछे लगा लिये जाते हैं । कितने ही ग्रन्थकारोने तो स्पष्ट कह दिया है कि 'एवमागमा अप्यनुसन्धेयाः ' इस हमारे अनुमानके साथ अब वेदवाक्यभी जोड लिये जांय' । कितनोहीने युक्तिसे यह बात कही है ।
बम्बई प्रभृति देशमें मकान बनाते समय जैसे प्रथम एक लकडियोंका आकार प्रकार खडा कर लिया जाता है और चादमें उसके अवकाशमें ईटचूना प्रभृति भरलिये जाते हैं इसीतरह प्रथम अध्यासभाष्य प्रभृति तर्कका आकार प्रकार बांध लिया गया है और उसीके अवकाशमें सूत्र और वेदवाक्य जोड़लिये गए हैं । किन्तु श्रीमद्वल्लभाचार्यने भाष्य में अपना कोई स्वतन्त्र मत बांधा नहीं है । जो वेदवाक्यसे सिद्धान्त निकल आवै, जो मार्ग व्याससूत्र बतावै उसीके अनुसार विचार करते चले जाना यह श्रीमद्वल्लभाचार्यकी ग्रन्थसरणि है । और इसे ही मीमांसा कहना उचित है । इसलिये ग्रन्थसरणिसे भी आचार्य शब्दके उचित श्रीवल्लभाचार्य ही हैं ।