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और उनके सिद्धान्त । ५-यह तो सिद्ध हुआ कि जिसके तीनो प्रकारोंमे वेदशास्त्रोक्त आचरण हों वह आचार्य । किन्तु अब यह विचारना है कि वह कौन होना चाहिये । ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र, ब्रह्मचारी, ग्रहस्थ, वानप्रस्थ या सन्यासी । इनमेंसे कौन आचार्य हो सकता है।
६-वेदमें एक श्रुति है कि 'विद्या ह वै ब्राह्मणमा जगाम गोपाय मा शेवधिष्ठेऽहमस्मि' इत्यादि । प्रथमही प्रथम विद्या ब्राह्मणके ही पास आई और बोली कि 'ब्राह्मणदेव तुम मेरा पालन करो मै तुम्हारे लिये खास हूं' इस वेदवाक्यसे मालूम होता है कि आचार्य ब्राह्मणही हो सक्ता है। किन्तु स्मृतियोंमें युगान्तरमें
क्षत्रियोंसेभी ब्राह्मणोंको विद्याका दान हुआ है, यह लिखा है 'एवं परंपराप्राप्तमिमं राजर्षयो विदुः' खास वेदोमें मी जीवल के वंशमें पैदा हुआ प्रवाहण नामक राजर्षि आचार्य पाया जाता है। इसी राजर्षि प्रवाहणने श्वेतकेतुके पिताको पञ्चाग्निविद्याका उपदेश दिया था। इस लिये मानना पड़ेगा कि ब्राह्मणके श्रेष्ठ रहने परभी युगके अनुसार ब्राह्मण क्षत्रिय ये दोनों आचार्य हो सक्ते हैं। इन दोके सिवा अन्यको आचार्य होनेका अधिकार मिला नहीं है क्योंकि उन्हें ब्रह्मविद्याके दानका अधिकार नहीं है । आदिमें ब्रह्माके द्वारा सर्व विद्याओंका उपदेश हुआ