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इसी वर्णविन्यासवक्रता के अन्तर्गत कुन्तक ने प्राचीन आचार्यों द्वारा स्वीकृत अनुप्रास तथा यमक अलंकार का एवं भट्टोद्भट द्वारा स्वीकृत परुषा, उपनागरिका और प्राभ्यावृत्तियों का ग्रहण कर लिया है । उन्हीं के कथन हैं—
( क ) 'एतदेव वर्णविन्यासवकत्वं चिरन्तनेष्वनुप्रास इति प्रसिद्धम् । पृ० ६३ (ख) 'वर्णच्छायानुसारेण गुणमार्गानुवर्तिनी ।
वृत्ति वैचित्र्ययुक्तेति सैव प्रोक्ता चिरन्तनैः ॥ ' ( २।५ )
( ग ) ' यमकं नाम कोऽप्यस्याः प्रकारः परिदृश्यते ।' (२।६ ) २. पदपूर्वार्द्धवक्रता
कुन्तक का पद से अभिप्राय है सुबन्त एवं तिङन्त पदों से, जैसा कि पाणिनि ने कहा है – 'सुप्तिङन्तं पदम् ।" इसप्रकार स्पष्ट है कि पद में दो भाग होते - एक भाग तो सुप् और तिङ् रूप परार्द्ध है और दूसरा प्रकृति रूप पूर्वार्द्ध । उसी प्रकृति को क्रम से प्रातिपदिक और धातु कहते हैं । प्रातिपदिक सुबन्त होने पर पद बनता है और धातु तिङन्त होने पर । अतः जो प्रातिपदिक अथवा धातु के वैचित्र्य के कारण आने वाली रमणीयता है उसे हम पदपूर्वार्द्धवकता के नाम से श्रभिहित करेंगे ।
कुन्तक ने इसके अनेक प्रभेद प्रस्तुत किए हैं। वे इस प्रकार हैं
( क ) रूढिदैचित्र्यबक्रता — जहाँ पर रूढि शब्द के द्वारा असम्भाव्य धर्म को प्रस्तुत करने के अभिप्राय का भाव प्रतीत होता है वहीँ, अथवा जहाँ पदार्थ में रहने वाले ही किसी धर्म की अद्भुत महिमा को प्रस्तुत करने का भाव प्रतीत होता है वहाँ रूढवैचित्र्यवक्रता होती है । इस प्रकार के भाव की प्रतीति कवि वर्ण्यमान पदार्थ के या तो लोकोत्तर तिरस्कार का प्रदिपादन करने की इच्छा से या उसके स्पृहणीय उत्कर्ष को प्रस्तुत करने की इच्छा से कराता है । इसके उदाहरण रूप में कुन्तक ने श्रानन्दवर्धन द्वारा 'अर्वान्तरसङ्क्रमितवाच्यध्वनि' के उदाहरण रूप में ध्वन्यालोक पृ० १७० पर उद्घृतः
ताला जायन्ति गुणा जाला दे सहिश्रएहि घेप्पन्ति । रकिरणाणुग्गहिचाइ होन्ति कमलाइ कमलाइ ॥ को उद्धृत किया है ।
इसके उन्होंने वक्ता की दृष्टि से मुख्य रूप से दो भेद किए हैं। पहला भेद वहाँ होता है जहाँ कि स्वयं वक्ता ही अपने उत्कर्ष अथवा तिरस्कार को प्रतिपादित करते हुए कवि द्वारा उपनिबद्ध किया जाता है । तथा दूसरा भेद वहाँ होता है जहाँ किसी दूसरे वक्ता को कवि किसी के उत्कर्ष अथवा तिरस्कार का