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कारण ही जड़ जगत् चेतन सा प्रतीत होता है। इसीलिए आत्मा को ईश्वर का प्रतिबिम्ब. ईश्वरांश, ब्रह्म की छाया इत्यादि उपमानों के द्वारा लक्षित करने का प्रयास किया गया है।
श्री अरविन्द ने भी आत्मा को ब्रह्म का अंश रूप माना है। ब्रह्म के सत्-चित्-आनन्द इन तीन तत्त्वों के कारण ही जीव सत्तावान, चेतन और आनन्दित अनुभव करता है। प्राणियों के हृदय में निवास करने वाला आत्मा, अन्य कुछ नहीं है। वह तो दिव्य चैतन्य परमात्मा का ही एक अंश है।
__ जीवों के भीतर विद्यमान सत्-चित्-आनन्द तत्त्व उस अखण्ड परमात्मा के ही विविध पक्ष हैं। ब्रह्म स्वरूपतः सच्चिदानन्द है। उसी की अंशभूत जीवात्मा अनेक होते हुए भी उससे भिन्न नहीं हैं। प्राणि शरीर के भीतर हृदयस्थ आत्मा तथा अतिशय रूप से सर्वव्यापी परमात्मा के रूप में विद्यमान एक ही तत्त्व है। दोनों ही रूपों में यह पूर्ण है। परमात्मा समष्टि रूप में जितना पूर्ण है उतना ही वह व्यष्टि रूप जीवात्माओं के रूप में भी अखण्ड एवं पूर्ण है। जिस प्रकार अखण्ड आकाश घट के भीतर पड़ने पर घटाकाश के रूप में संकुचित होकर भिन्न सा प्रतीत होता है, परन्तु घड़े के भग्न हो जाने पर वह पूर्णाकाश से किंचित् भी भिन्न नहीं होता है, उसी प्रकार शरीरस्थ जीवात्मा के भीतर भी परमात्मा का अंशत्व माना गया है। वस्तुतः दोनों में कोई भेद नहीं है। दोनों अखण्ड, अनन्त और एकमात्र तत्त्व हैं।
परमात्मा का जीवात्मा के रूप में जगत् में कार्य करना ब्रह्म का स्वभाव है, उसकी लीला है। अपने मूल स्वरूप में तो वह नित्य, शुद्ध, बुद्ध और निर्विकारी है। इसलिए वह जन्म-मृत्यु से भी सर्वथा परे है। जन्म-मृत्यु तो शरीर का धर्म है। आत्मा पर इसका कोई प्रभाव नहीं पड़ता है। आत्मा सदैव चैतन्य, अजर, अमर और निर्लेप है। जगत् में जीवात्मा की सत्ता वस्तुतः ब्रह्म की ही सत्ता है। ब्रह्म जितना अपने अखण्ड निर्विकल्पक स्वरूप में शुद्ध सर्वव्यापी होता है उतना ही वह जीवात्मा की ब्रह्मत्व की अवस्था में भी।
जीवात्मा की अवस्था में होने पर ब्रह्म तत्त्व पर शरीर के जीवन, मृत्यु रोगादि धर्मों का कोई प्रभाव नहीं पड़ता है। आत्मा तो स्वभावतः ही निर्विकारी और निर्विकल्पक है। आत्मा पर जीव के द्वारा विभिन्न धर्मों का आरोपण करना ही अविद्या है, जिसके कारण उसका मूल स्वरूप अज्ञानावृत्त होकर जीव के लिए अज्ञेय हो जाता है। जीव स्वयं अपने ही भीतर विद्यमान तत्त्व को इतर-इतर पदार्थों में देखने का प्रयास करता है जिसके फलस्वरूप अज्ञान का आवरण और विस्तृत होता चला जाता है।
श्री अरविन्द ने आत्मा के रूप में ही ब्रह्म को जीव के लिए ज्ञेय माना है। ब्रह्म का निर्विकल्पक स्वरूप तो अखण्ड, अनन्त, अज्ञेय तथा केवल "नेति नेति" है, इसलिए वह ज्ञान और अज्ञान दोनों की सीमा से सर्वथा परे है। आत्मा के परमात्मा का ही अंश होने के कारण आत्मज्ञान के द्वारा परमात्म तत्त्व स्वयं प्राप्य है। अतः श्री अरविन्द ने आत्मज्ञान को 8 -
तुलसी प्रज्ञा अंक 124
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