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गतिशीलता एवं राजनैतिक निष्पक्षता हो । नागरिक असमानता दूर कर सकते हैं लेकिन सरकार विषमता दूर करने में सक्षम नहीं, विशेष रूप से आय की विषमता।
अतएव आर्थिक असमानता तो कुछ सीमा तक स्वीकार्य हो सकती है पर समाज को खण्ड-खण्ड कर सामाजिक असमानता कभी भी स्वीकार्य नहीं हो सकती और न ही वह राजनैतिक स्थिरता ला सकती है। भारत में पिछले कुछ वर्षों से विभाजन एवं राजनीति का आधार आर्थिक की अपेक्षा सामाजिक अधिक हो गया है। आर्थिक समानता के अभाव में सामाजिक समानता ही है जो राजनीति को स्थायित्व देती है। आर्थिक समानता के साथ सामाजिक समानता भी छीन ली जाए तो फिर राजनैतिक स्थायित्व की कल्पना भी कैसे की जा सकती है?
संदर्भ :1. B.R. Nagar, Globlization and Nationalisim, Sage Publications, Delhi. 2. Rajendra Singh, Social Movements, old and new, A Postmodernist Critigue,
Sage Publications, Delhi. 3. Vidhu Verma, Justice, Equality and Community, Sage Publications, Delhi. 4. Inger, Skjelsback and Dan smith (Ed.) Gender, Peace & Conflict, Sage
Publications, Delhi. 5. Ram Ahuja, Social Problems in India, Rawat, Jaipur.
अध्यक्ष अहिंसा एवं शान्ति विभाग जैन विश्वभारती संस्थान (मान्य विश्वविद्यालय) लाडनूं- 341306 (राजस्थान)
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तुलसी प्रज्ञा अंक 124
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