Book Title: Tulsi Prajna 2004 04
Author(s): Shanta Jain, Jagatram Bhattacharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

View full book text
Previous | Next

Page 30
________________ अमुक-अमुक वस्तुओं का आयात अनिवार्यतः करना होगा। भारत ने उनके प्रस्तावों को स्वीकार कर लिया है और अब यहाँ के 176 जिलों में प्राथमिक शिक्षा उनकी योजना के अनुसार चल रही है और 66 जिलों में चलाने के लिए प्रयास हो रहे हैं। इतने व्यापक स्तर पर विशेषकर प्राथमिक शिक्षा में जो अनुदान प्राप्त स्वैच्छिक संगठन दिलचस्पी ले रहे हैं, उसके प्रभाव बेहद घातक होंगे। फिलहाल दो संदर्भों को समझना जरूरी है । पहली बात यह कि शिक्षा के सार्वजनीकरण में कार्यरत संस्थाओं का सारा ध्यान परिमाणात्मक उपलब्धि पर केन्द्रित है, दूसरी बात यह कि ये जनता की आकांक्षाओं, उसके संघर्षों और सपनों को संजीदगी से नहीं लेते। वैश्वीकरण की गैरबराबरी के सिद्धान्तों के प्रति असहमत ‘विश्व सामाजिक मंच' ने दुनिया भर के आर्थिक रूप से पिछड़े देशों का अध्ययन करते हुए, वहाँ कार्यरत स्वैच्छिक संगठनों (जो धनी देशों के अनुदान के बल पर कार्यरत हैं) के उद्देश्यों पर सवालिया निशान उठाया है। एक तरफ सरकारें जनविरोधी शिक्षा नीतियाँ बनाती हैं, दूसरी तरफ बहुराष्ट्रीय व्यवसाय प्रेरित सहायता संस्थानों की सहायता से कार्यरत एजेंसियों की भूमिका को बढ़ाया जा रहा। क्रूर यथार्थ यह है कि, 'कई सरकारें अपने बजट में जनता की जरूरतों के लिए जरूरी सेवाओं पर अपने खर्चे में भारी कटौती करने के बावजूद किसी तरह जनतंत्र का मुखौटा बनाए रखना फायदेमंद मानती हैं। इस प्रक्रिया में गैर सरकारी संगठन राजसत्ता के निजी ठेकेदार की भूमिका निभाते हैं। जिसका फायदा यह है कि राज्य अपनी जिम्मेदारियों से छुटकारा पा लेते हैं। आम जनता गैर सरकारी संगठनों से अधिकार की मांग नहीं कर सकती -जनता तो उनसे सिर्फ 'दान' की उम्मीद कर सकती है । भारत में केन्द्र और राज्य सरकारों द्वारा शैक्षिक संस्थानों को दिए गए अनुदानों में कटौती जारी है। जैसे मध्यप्रदेश में उदारवाद के तहत बीस प्रतिशत की दर से अनुदान में कटौती शुरू हुई। इसे पांच साल में शून्य होना था। विधानसभा में बिना कोई बहस किए इस विधेयक को पारित कर दिया गया। इस कटौती के विरोध में शिक्षक संगठन उच्च न्यायालय में गए और सरकार वहाँ हार गयी, अब यह मामला उच्चतम न्यायालय में विचाराधीन है। अब बरसों से अनुदान पा रहे वे शैक्षिक संस्थापन जो दूर-दराज के इलाकों में अपना दायित्व निभा रहे थे, उनका अस्तित्व ही संशयग्रस्त हो चला है। फिलहाल अध्यापकों की सारी वेतनवृद्धियाँ रोक दी गयी हैं और वेतन का भी केवल पचास प्रतिशत दिया जा रहा है। अन्य राज्यों में भी कमोबेश यही स्थितियाँ आने वाली हैं, नियुक्तियाँ कई बरसों से बन्द हैं ही। एक पुरानी कहावत का सहारा लें तो बकरे की माँ तक खैर मनाएगी। आन्दोलनरत अध्यापकों को मात देने के लिए माहिर सत्ता ने खेल खेला। पहले अल्पसंख्यक, फिर महिला, फिर हरिजन आदिवासी संस्थाओं को पूरा अनुदान देने की घोषणा कर आन्दोलन को कमजोर कर दिया गया। अध्यापक मनोहर बिल्लौरे की वेदना और उनके सवाल भूमंडलीकरण के परिप्रेक्ष्य में तुलसी प्रज्ञा अप्रैल-जून, 2004 Jain Education International For Private & Personal Use Only 25 www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110