Book Title: Tulsi Prajna 2004 04
Author(s): Shanta Jain, Jagatram Bhattacharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 82
________________ "शब्द-बन्ध-सौक्ष्म्य-स्थौल्य-संस्थान-भेद-तमश्छायातपोद्योतवन्तश्च ॥" "(शब्द-बन्ध-सौक्ष्म्य-स्थौल्य-संस्थान-भेद-तमः-छाया-आतप-उद्योतवन्तश्च पुद्गल भवन्ति।)" 39. मुनि यशोविजयजी, पूर्व उद्धृत ग्रन्थ, पृष्ठ 54-57 40. आचार्य तुलसी, भिक्षुन्यायकर्णिका, 1/5, 6,8 "व्यवच्छेदकधर्मो लक्षणम् ॥5॥ (वृत्ति-वस्तुनो व्यवस्थापनहेतुभूतो धर्मो लक्ष्यं व्यवच्छिनत्ति-सांकीर्ण्यमपनयतीति लक्षणम्) अव्याप्त-अतिव्याप्त-असंभविनस्तदाभासाः ॥6॥ (वृत्ति-अतत् तदिव आभासते इति तदाभासः लक्ष्यालक्ष्यवृत्तिरतिव्याप्तः॥8॥) (वृत्ति-यथा-वायोर्गतित्त्वम्) अनुवाद-"एक वस्तु को दूसरी वस्तुओं से पृथक् करने वाला धर्म लक्षण है ॥ 5 ॥ (वृत्ति-वस्तु के व्यवस्थापन में हेतुभूत धर्म, जो लक्ष्य को शेष से व्यवच्छिन्न करता है-दूसरों से उसे पृथक् करता है, वह लक्षण है।) । "अव्याप्त, अतिव्याप्त और असंभवी-ये तीन लक्षणाभास हैं।" ॥ 6 ॥ (वृत्ति-जो लक्षण नहीं है पर लक्षण जैसा प्रतीत होता है, उसे लक्षणाभास कहा जाता है।) "जो लक्षण लक्ष्य और अलक्ष्य दोनों में मिलता है वह अतिव्याप्त लक्षणाभास है।" ॥8॥ (वृत्ति-जैसे-वायु का लक्षण गतिशीलता।)" 41. आचार्य महाप्रज्ञ, पूर्व उद्धृत लेख, पृष्ठ 14-19 विद्युत् : सचित्त या अचित्त वर्तमान युग बिजली का युग है। इस विषय में दो प्रश्न उपस्थित होते हैं1. बिजली अग्नि है या नहीं? 2. बिजली सचित्त है या अचित्त? इस विषय पर विभज्यवादी शैली से विचार करना आवश्यक है। अग्नि के मुख्य धर्म पांच हैं-1. ज्वलनशीलता, 2. दाहकता, 3. ताप, 4. प्रकाश, 5. पाकशक्ति। नरक में जो अग्नि है वह ज्वलनशील भी है (सूयगडो 1/5/11), दाहक भी है (सूयगडो 1/5/12), उसमें ताप (सूयगडो 1/5/13) और प्रकाश भी है। पाक शक्ति भी है (सूयगडो 1/5/15)-फिर भी वह निर्जीव है, अचित्त है। सजीव अग्निकाय सिर्फ मनुष्य-क्षेत्र में होती है। मनुष्य-क्षेत्र से बाहर सजीव अग्नि नहीं होती। सूत्रकृतांग में उसे अकाष्ठ अग्नि-ईंधन के बिना होने वाली अग्नि बताया है। (सूयगडो 1/5/38)" "नरक में होने वाली अग्नि, तेजोलेश्या के प्रयोग के समय निकलने वाली ज्वाला जैसे अचित्त और निर्जीव अग्नि है, वैसे ही विद्युत् भी अचित्त और निर्जीव अग्नि है-यह स्वीकार करने में कोई कठिनाई नहीं है। षड्जीवनिकाय में आने वाला सजीव अग्निकाय नहीं है।" "अग्नि नहीं, अग्नि सदृश द्रव्य तत्त्व णं जे से विग्गहगति समावन्नए नेरइए से णं अगणिकायस्स मझमझेणं वीइवएजा। (भगवई 14/54,55) नारकक्षेत्रे बादराग्निकायस्याभावात्, मनुष्यक्षेत्रे एवं तद्भावात्, यच्चोत्तराध्ययनादिषु श्रूयते-'हुयासणे जलंतंम्मि दडुपुव्वो अणेगसो।' इत्यादि तदग्निसदृशद्रव्यान्तरापेक्षययावसेयं, संभवन्ति च तथाविधशक्तिमन्ति द्रव्याणि तेजोलेश्याद्रव्यवदिति । (भगवई टीका 14/54/55) तुलसी प्रज्ञा अप्रैल-जून, 2004 - - 77 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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