Book Title: Tulsi Prajna 2004 04
Author(s): Shanta Jain, Jagatram Bhattacharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 80
________________ से की जा सकती है। कुंडलिनी की दो अवस्थाएं होती हैं- सुप्त और जागृत । तेजोलेश्या की भी दो अवस्थाएं होती हैं-संक्षिप्त और विपुल। इसके द्वारा हजारों किलोमीटर में अविस्थित वस्तु को भस्म किया जा सकता है। इसी प्रकार बहुत दूर तक अनुग्रह भी किया जा सकता है। इसके द्वारा अनुग्रह और निग्रह दोनों किए जा सकते हैं।" "भगवती वृत्ति में तेजोलेश्या को अग्निसदृश द्रव्य कहा गया है। (भ.वृ. पत्र 642-तदग्निसदृश द्रव्यान्तराऽपेक्षयावसेयं संभवन्ति तथाविधशक्ति-मन्ति द्रव्याणि तेजोलेश्याद्रव्यवदिति ।)" 32. मुनि यशोविजयजी, पूर्व उद्धृत ग्रन्थ, पृष्ठ 51, 52 33. आचार्य महाप्रज्ञ, पूर्व उद्धत लेख पृष्ठ 15, 16 "भगवती का एक और उल्लेख है कि दिन में पुद्गल शुभ रूप में परिणत हो जाते हैं और रात्रि में वे अशुभ रूप में परिणत होते हैं । नैयायिक आदि अंधकार को अभाव रूप में मानते हैं। जैन दर्शन के अनुसार वह पुद्गल का परिणाम है। जैसे अंधकार पुद्गल का परिणाम है, वैसे ही प्रकाश भी पुद्गल का परिणाम है। भगवती का पूर्ण पाठ इस प्रकार है- से नूणं भंते! दिया उज्जोए? राइं अंधयारे? हंता गोयमा! दिया उज्जोए। रायं अंधयारे॥ से केणटेणं? गोयमा! दिया सुभा पोग्गला सुभे पोग्गलपरिणामे, राई असुभा पोग्गला असुभे पोग्गलपरिणामे। से तेणटेणं ॥ (भगवई 5/237-238) 'भंते ! क्या दिन में उद्योत और रात्रि अंधकार है?' 'हां, गौतम! दिन में उद्योत और रात्रि में अंधकार है।' 'यह किस अपेक्षा से?' 'गौतम! दिन में शुभ पुद्गल होते हैं और पुद्गलों का परिणमन शुभ होता है । रात्रि में अशुभ पुद्गल होते हैं और पुद्गलों का परिणमन अशुभ होता है-यह इस अपेक्षा से।' दिन में सूर्यरश्मियों के संपर्क से पुद्गलों का परिणमन शुभ होता है। इसलिए दिन में उद्योत होता है। रात्रि में सूर्यरश्मि तथा अन्य प्रकाशक वस्तुओं के अभाव में पुद्गलों का परिणमन अशुभ होता जाता है। प्रस्तुत आलापक में उद्योत और अंधकार का अनेक अपेक्षाओं से निरूपण किया गया है। नरक में पुद्गलों का अशुभ परिणमन होने के कारण निरंतर अंधकार रहता है । वृत्तिकार के अनुसार पुद्गल की शुभ परिणति के निमित्तभूत सूर्यकिरण आदि प्रकाशक वस्तु का अभाव है। दिवसे शुभः पुद्गलता भवन्ति, किमुक्तं भवति?-शुभः पुद्गलपरिणामः स चार्ककरसम्पर्कात्। (भ.वृ. 5/238)" 34. मुनि यशोविजयजी, पूर्व उद्धृत ग्रन्थ, पृष्ठ 52, 53 35. A.K. Shaha, op.cit., pages 121, 122 36. वही, pages 120, 121 तुलसी प्रज्ञा अप्रैल-जून, 2004 - 75 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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