Book Title: Tulsi Prajna 2004 04
Author(s): Shanta Jain, Jagatram Bhattacharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 83
________________ अचित्त अग्नि इंगालरासिं जलियं सजोइं, तओवमं भूमिमणुक्कमंता। ते उज्झमाणा कलुणं थणंति, उसुचोइया तत्थ चिरट्टिईया ॥ (सूयगडो 5/1/7) वे जलती हुई ज्योति सहित अंगारराशि के समान भूमि पर चलते हैं। उसके ताप से जलते हुए वे चिल्ला-चिल्लाकर करुण क्रंदन करते हैं। वे चिरकाल तक उस नरक में रहते हैं। इंगालरासिं जधा इंगालरासी जलितो धगधगेति एवं ते नरकाः स्वभावोष्णा एव ण पुण तत्थ बादरो अग्रणी अत्थि, णऽण्णस्थ विग्गहगति समावण्णएहिं । ते पुण उसिणपरिणता पोग्गला जंतवाऽचुल्लीओ वि उसिणतरा (सूत्रकृतांग चूर्णि, पृ. 128) । तत्र बादराग्नेरभावात्तदुपमां भूमिमित्युक्तम्, एतदपि दिग्दर्शनार्थमुक्तम् अन्यथा नारकतापस्येहत्याग्निा नोपमा घटते, ते च नारका महानगरदाहाधिकेन तापेन दह्यमाना। (सूत्रकृतांग वृत्ति, पत्र 129) विधूमो नामाग्निरेव, विधूमग्रहणाद्, निरिन्धनोऽग्निः स्वयं प्रज्वलितः सेन्धनस्य मग्नेरवश्यमेव धूमो भवति। (चूर्णि, पृ. 136) वैक्रियकालभवा अग्नयः अघट्टिता पातालस्था अप्यनवस्था। (चूर्णि, पृ.137) नरक में बादर अग्नि नहीं होती। वहां के कुछ स्थानों के पुद्गल स्वत: उष्ण होते हैं । वे भट्टी की आग से भी अधिक ताप वाले होते हैं । वे अचित्त अग्निकाय के पुद्गल हैं। हमारी अग्नि से उस अग्नि की तुलना नहीं की जा सकती, क्योंकि वहां अग्नि का ताप महानगरदाह की अग्नि से उत्पन्न ताप से बहुत तीव्र होता है। पैंतीसवें तथा अड़तीसवें श्लोक में भी बिना काठ की अग्नि का उल्लेख है। उसकी उत्पत्ति वैक्रिय से होती है। यह अचित्त अग्नि है। केसिं च बंधित्तु गले सिलाओ, उदगंसि बोलेंति महालयंसि। कलंबुयासवालुयमुम्मुरे य, लोलेंति पच्चंति य तत्थ अण्णे ॥ (सूयगडो 5/1/10) कुछ परमाधार्मिक देव किन्हीं के गले में शिला बांधकर उन्हें अथाह पानी में डुबो देते हैं। (वहां से निकालकर) तुषाग्नि की भांति (वैतरणी के) तीर की तपी हुई बालुका में उन्हें लोटपोट करते हैं और भूनते हैं। असूरियं णाम महाभितावं, अंधं तमु दुप्पतरं महंतं । उडु अहे यं तिरियं दिसासु, समाहिओ जत्थगणी झियाइ ।। (सूयगडो 3/1/11) असूर्य नाम का महान् संतापकारी एक नरकावास है। वहां घोर अंधकार है, जिसका पार पाना कठिन है -इतना विशाल है। वहां ऊंची, नीची और तिरछी दिशाओं में निरंतर आग जलती है। अगणी-आग तत्थ कालोभासी अचेयणो अगणिक्कायो। (चूर्णि, पृ.129) चूर्णिकार ने इसका अर्थ काली आभा वाला अग्निकाय किया है। वह अचेतन होता है। जंसी गुहाए जलणेऽतिवट्टे, अविजाणओ डज्झइ लुत्तपण्णो। सया य कलुणं पुण धम्मठाणं, गाढोवणीयं अइदुक्खधम्मं ॥ (सूयगडो 5/1/12) उसकी गुफा में नारकीय जीव ढकेला जाता है। वह प्रज्ञाशून्य नैरयिक निर्गमद्वार को नहीं जानता हुआ उस अग्नि में जलने लग जाता है। नैरयिकों के रहने का वह स्थान सदा तापमय और करुणा उत्पन्न करने वला है। वह कर्म के द्वारा प्राप्त और अत्यंत दुखमय है। 78 - - तुलसी प्रज्ञा अंक 124 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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