Book Title: Tulsi Prajna 2004 04
Author(s): Shanta Jain, Jagatram Bhattacharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 87
________________ इच्वेतं पंचविंह ववहारं जदा - जदा जहिं जहिं 'तदा तदा' तहिं तहिं अणिस्सि - ओवस्सितं सम्मं ववहरमाणे समणे निग्गंथे आणाए आराहए भवइ । ( भगवई - सत 8/301, ववहारं उ. 10, ठाणं 5/124) इहां पांच ववहार में धारणा ववहार अनै जीत ववहार पिण कह्यो । सुध सरधा आचार वंत साधु नो यो जीत ववहार में दोषी नहीं । ते जीत ववहार ना केतला एक बोल कहै छे 82 दूहा 12. जीत ववहार ना बोल नो, आखूं छू अधिकारं । दृढ़ समदृष्टि निपुण ते नाणे संक लिगार ॥ 28. इत्यादिक अनेक बोल सुध, जाणी आचार्य थापै । जीत ववहारतास जिन आणा, बुद्धिवंत नाहिं उथापै । 29. आगम श्रुत नें आणा धारणा, जीत पंचमो साधक । पंच ववहार पणे प्रवर्त्यां, आज्ञा तणों आराधक । 30. ए ठाणांग भगवती ववहारसूत्रे, आख्यो एम जिणंदा । तो जीत ववहार उथापै ते तो, प्रगट जैन रा जिंदा || 31. भिक्षु स्वाम तणीं ए बांधी, उत्तम वर मर्यादो । विमल चित आराधे सुगणां, मेटी भर्म उपाधो ॥" 43. मुनि यशोविजयजी, पूर्व उद्धृत ग्रन्थ, पृष्ठ 57-63 44. देखें प्रथम भाग की टिप्पण संख्या 8 (B) 45. आचार्य तुलसी, जैन सिद्धान्त दीपिका, 1/9-11 “जीवपुद्गलयोर्विविधिसंयोगैः स विविधरूपः ॥१॥ (वृत्ति-इयं विविधरूपता एव सृष्टिरिति कथ्यते ।) संयोगश्चापश्चवानूपूर्विकः ॥ 10 ॥ कर्म - शरीरोपग्रहरूपेण त्रिविधः ॥ 11 ॥ (वृत्ति: - उपग्रह :- आहार-वाङ्मनः - उच्छ्वासनिः श्वासादयः । ) अनुवाद - "जीव और पुद्गलों के विविध संयोगों से वह (लोक) विविध प्रकार का है(लोक की इस विविधरूपता को ही सृष्टि कहा जाता है। (पौर्वापर्यशून्य) है | ॥10 ॥ जीव और पुद्गल का संयोग अपश्चानुपूर्विक संयोग तीन प्राकर का है 1. कर्म, 2. शरीर, 3. उपग्रह ॥ 11 ॥ (उपग्रह - आहार, वाणी, मन, उच्छ्वास - नि:श्वास आदि उपकारक शक्तियाँ।) 46. आचार्य महाप्रज्ञ, पूर्व उद्धृत लेख, पृष्ठ 16 47. वही, पृष्ठ 15 Jain Education International For Private & Personal Use Only तुलसी प्रज्ञा अंक 124 www.jainelibrary.org

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