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व्रत की भूमिका
व्रत व्यक्ति का “स्व” है। यह बलात् नहीं होता, स्वेच्छा से किया जाता है। व्रत कोई बाहरी वस्तु नहीं है। वह इच्छा और आचरण का नियमन है। व्यक्ति में इच्छा पैदा होती है और आचरण में उसकी अभिव्यक्ति होती है। वह आचरण न किया जाय, जिससे आत्मा का विकास रुके और उसकी इच्छा भी मिट जाए, वैसा अभ्यास किया जाए - यही है व्रत ।
व्रत आत्म-संयम से आते हैं। आत्म-विकास के लिए संकल्प पूर्वक स्वीकार किए जाते हैं, इसीलिए वे सामाजिक सुविधा - असुविधा से बनते बिगड़ते नहीं। व्रत का परिपाक दीर्घकालीन साधना से होता है। व्रत की पहली भूमिका है श्रद्धा का जागरण, मध्यवर्ती है स्थिरीकरण और अन्तिम है आत्म-रमण।
• अनुशास्ता आचार्य महाप्रज्ञ
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तुलसी प्रज्ञा अंक 124
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