Book Title: Tulsi Prajna 2004 04
Author(s): Shanta Jain, Jagatram Bhattacharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 109
________________ 104 व्रत की भूमिका व्रत व्यक्ति का “स्व” है। यह बलात् नहीं होता, स्वेच्छा से किया जाता है। व्रत कोई बाहरी वस्तु नहीं है। वह इच्छा और आचरण का नियमन है। व्यक्ति में इच्छा पैदा होती है और आचरण में उसकी अभिव्यक्ति होती है। वह आचरण न किया जाय, जिससे आत्मा का विकास रुके और उसकी इच्छा भी मिट जाए, वैसा अभ्यास किया जाए - यही है व्रत । व्रत आत्म-संयम से आते हैं। आत्म-विकास के लिए संकल्प पूर्वक स्वीकार किए जाते हैं, इसीलिए वे सामाजिक सुविधा - असुविधा से बनते बिगड़ते नहीं। व्रत का परिपाक दीर्घकालीन साधना से होता है। व्रत की पहली भूमिका है श्रद्धा का जागरण, मध्यवर्ती है स्थिरीकरण और अन्तिम है आत्म-रमण। • अनुशास्ता आचार्य महाप्रज्ञ Jain Education International For Private & Personal Use Only तुलसी प्रज्ञा अंक 124 www.jainelibrary.org

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