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1. समतामूलक व्यवस्था और बहुजनहितायता की अवधारणा का निषेध (ढाँचागत बदलाव और शैक्षिक परिदृश्य)
आधी शताब्दी पहले जब भारत स्वाधीन हुआ था, तब 14 अगस्त 1947 को अंग्रेजों के प्रस्थान की पूर्व संध्या पर जवाहरलाल नेहरू ने कहा था, 'वर्षों पूर्व हमने नियति को मिलने का वचन दिया था और आज वह समय आ गया है जब हम अपना वह वचन पूरा करेंगे.... आज हम जिस उपलब्धि का उत्सव मना रहे हैं, यह तो उन महान् उपलब्धियों और मंजिलों, जो हमारा इन्तजार कर रही हैं, की ओर अग्रसर होने की दिशा में एक पहला कदम है- उस ओर चलने का मात्र एक पहला अवसर मिलता है। इस मौके पर उन्होंने गैर बराबरी के प्रति देशवासियों को आगाह किया कि भारत में ऐसे समतामूलक समाज की स्थापना की जाएगी, जहाँ किसी भी प्रकार की विषमता की खाई नहीं रहेगी। भारतीय संघ की जनकल्याणकारी नीतियों में यह रूपरेखा तय की गयी कि सरकार इस दायित्व का निर्वाह करे कि भारतीय जनता के लिए सरल, सस्ती और सुलभ शिक्षा उपलब्ध हो, जो मानवीय गुणों का विकास करे। लेकिन दुर्भाग्यवश दृढ़ इच्छा शक्ति के अभाव और सरकारी उदासीनता के कारण इस लक्ष्य की प्राप्ति नहीं हुयी। विकसित पश्चिमी देशों से तुलना न कर यदि तेजी से विकसित हुए एशियाई देशों जैसे -दक्षिण कोरियर, हांगकांग, थाईलैंड, चीन आदि से भारत के शैक्षिक परिदृश्य की तुलना करें तो हमें तल्ख हकीकतों का सामना करना पड़ता है।
अर्थशास्त्री ज्यां द्रीज और अमर्त्य सेन ने आर्थिक नीतियों के बदलते परिदृश्य में भारतीय शिक्षा व्यवस्था का गहन अध्ययन किया है, और चुने हुए एशियाई देशों से तुलना करते हुए जो मूल्यवान निष्कर्ष दिए हैं, उन्हें प्रसंगवश उद्धृत किया जा सकता है।, यहाँ यह गौर करना खास महत्त्वपूर्ण नहीं है कि आज के भारत में साक्षरता का दर तुलना किए गए देशों (दक्षिण कोरिया, हांगकांग, थाईलैंड, चीन) से निम्न स्तर का है या यह कि जिस समय इन देशों ने विकास की लम्बी छलाँग लगाई उस समय भारत उनकी तुलना में साक्षरता की दृष्टि से बहुत पीछे था। हम तो इस तथ्य की ओर ध्यान आकृष्ट करना चाहते हैं कि आज भी भारत शिक्षा और साक्षरता के उस स्तर को नहीं पाया है जहाँ ये मुल्क अपनी विकास यात्रा को शुरू करने से ठीक पहले पहुँच चुके थे। आज के भारत और 1980 के कोरिया या फिर 1980 के चीन से तुलना करें तो इस कथन की सार्थकता और भी स्पष्ट होती है। इतने बरसों बाद भी हम उस साक्षरता स्तर तक नहीं पहुंच पाये हैं, जहाँ पर ये देश अपने बाजार आधारित आर्थिक विकास कार्यक्रम शुरू करने से पहले पहुँच चुके थे।
आर्थिक एवं सामाजिक दृष्टि से उच्च उपलब्धियों से सम्पन्न एशियाई देशों में शिक्षा के प्रसार में सरकार ने ही मुख्य और आधारभूत योगदान दिया है। सार्वजनिक नीतियों का महत्त्वपूर्ण उद्देश्य रहा है कि समाज के अधिकांश युवा सदस्य पढ़ने, लिखने एवं आधुनिक तुलसी प्रज्ञा अप्रैल-जून, 2004
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