Book Title: Tulsi Prajna 2004 04
Author(s): Shanta Jain, Jagatram Bhattacharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 60
________________ सहकार का स्वीकार किए बिना तो कहीं भी प्रकाश नहीं आ सकता। प्रकाश इत्यादि शक्ति आत्मा के विशेष प्रकार के प्रयत्न से प्रकट होती है-ऐसा आचारांगसूत्रवृत्ति में श्रीशीलांकाचार्यजी ने सुनिश्चित अनुमान प्रमाण द्वारा बताया है। ये रहे उनके शब्द 'प्रकाशादिशक्तिरनुमीयते जीवप्रयोगविशेषाऽऽविर्भाविता' (आ. नियुक्ति. गा.११८ वृत्ति)। सूर्यप्रकाश १०० प्रतिशत निर्जीव है, किन्तु वह जहाँ से निकलता है वह तो सूर्यमंडलगत सजीव पृथ्वीकाय ही है-ऐसा प्रथम कर्मग्रन्थ की (गा.४४) टीका में श्री देवेन्द्रसूरिजी महाराज ने स्पष्ट रूप से बताया है। सूर्य के अन्दर से निकलता हुआ उष्ण प्रकाश तो सूर्यमंडलगत पृथ्वीकाय के जीवों के आतपनामकर्म के विपाकोदय को आभारी है। आतपनामकर्म का उदय सूर्यमंडलगत पृथ्वीकाय के जीवों में ही होता है। यह पन्नवणासूत्र व्यख्या में श्री मलयगिरिसूरिजी ने स्पष्ट रूप से बताया है। ये रहे वे शब्द- 'तद्विपाकश्च भानुमण्डलगतेषु पृथिवीकायिकेष्वेव' (२३,२,५४० वृत्ति)। जठराग्नि चाहे निर्जीव क्यों न हो? किन्तु व्यक्ति तो जिन्दा है न। मृत व्यक्ति को तो जठराग्नि नहीं होती। जब तक शरीर में जीव है तब तक वह खुराक को हज़म कर सकता है। शरीर में जठराग्नि की उष्मा हो अथवा बुखार की गरमी हो, ये दोनों जीवित शरीर में ही होती है, मृत शरीर में नहीं। इसलिए वे जीव के ही आभारी है। यह बात आचारांगसूत्र की व्याख्या में श्री शीलांकाचार्यजी ने नीचे अनुसार बताई है-'ज्वरोष्मा जीवप्रयोगं नातिवर्तते, जीवाधिष्ठितशरीरकानुपात्येव भवित' (अध्ययन-१ नियुक्ति गा.११८ वृत्ति) अर्थात् बुखार की गरमी जीव के प्रयत्न के बिना नहीं होती है। जीव के प्रयत्न की वह अपेक्षा रखती ही है, क्योंकि वह जीवयुक्त शरीर में ही देखने को मिलती है। यदि केवल पुद्गल के आधार पर ही जठराग्नि इत्यादि हो तो मुर्दे में भी जठराग्नि, बुखार इत्यादि दिखाई देने चाहिए। आचारांगटीका में श्रीशीलांकाचार्यजी ने तो स्पष्ट रूप से बताया है कि 'सर्वेषामात्मप्रयोगपूर्वकं यत् उष्णपरिणामभावत्वं तस्मानानेकान्तः' (प्रथम अध्ययन-नियुक्ति गा. ११८ वृत्ति) अर्थात् सभी उष्णपरिणाम जीव के प्रयल के ही आभारी है। ये प्रयत्न साक्षात् हो अथवा परंपरा से हो-यह बात अलग है। ___'नरक में अग्निकाय नहीं है'-ऐसी उनकी बात सत्य है। किन्तु द्रव्य लोकप्रकाश के पाँचवे सर्ग में उपाध्यायश्री विनयविजयजी महाराज ने स्पष्ट रूप से बताया है कि 'पृथिव्यादिपुद्गलानां परिणामः स तादृशः' (लोकप्रकाश सर्ग-५,गा.१८२) अर्थात् नरक में अनुभव होने वाली उष्णता पृथ्वीकाय इत्यादि जीवों का परिणाम है। भगवतीसूत्र की व्याख्या में श्री अभयदेवसरिजी महाराज ने भी कहा है कि 'इह तेजस्कायिकस्येव परमधार्मिकनिर्मितज्वलनसदृशवस्तूनां स्पर्शः तेजस्कायिकस्पर्शः अथवा भवान्तरानुभूततेजस्कायिकपर्यायपृथिवीकायिकादिस्पर्शापेक्षया व्याख्येयम्' (भ.श.१३,उद्देशे४ वृत्ति पृष्ठ-६०७)। तुलसी प्रज्ञा अप्रैल-जून, 2004 - - 55 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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