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संबंध" - के अन्तर्गत इस विषय की विस्तृत चर्चा कर चुके हैं। वहाँ यह स्पष्ट हो गया था कि बादल, बिजली आदि सभी सादि वैस्रसिक बंध-परिणाम है।
सर्वप्रथम तो यह समझना है कि सारी सृष्टि ही मूलत: तो जीव और पुद्गल के विविध संयोगों से ही चलती है।
जैन दर्शन के अनुसार-"जीव और पुद्गलों के विविध संयोगों से यह लोक विविध प्रकार का है। लोक की इस विविधरूपता को ही सृष्टि कहा जाता है। जीव और पुद्गल का संयोग अपश्चानुपूर्विक (पौर्वापर्यशून्य) है। संयोग तीन प्रकार का है-1. कर्म, 2. शरीर, 3. उपग्रह । उपग्रह-आहार, वाणी, मन, उच्छ्वासनिःश्वास आदि उपकारक शक्तियाँ।"45
परम्पर या अनन्त रूप में सृष्टि की सभी क्रियाओं में जीव और पुद्गल का संयोग निमित्तभूत बनता है। इस माने में तो कोई भी पदार्थ निर्जीव नहीं माना जा सकता। मनुष्य द्वारा निःसृत तेजोलेश्या के पुद्गल के उष्मा एवं प्रकाश के लिए मनुष्य का आतपनामकर्म या उष्ण नामकर्म कहाँ तक जिम्मेदार हो सकता है? जीव के जो नाम कर्म उदय में आता है, वह उसके शरीर के साथ जुड़ता है। तेजो लेश्या के पुद्गल के प्रकाश और उष्णता छोड़ने वाले मनुष्य के नाम कर्म से कैसे जुड़ेगा? यदि जुड़ता ही है तो फिर इलेक्ट्रीसीटी की प्रक्रिया में प्रयुक्त पुद्गल भी परम्पर रूप में सुचालक पदार्थ (धातु) यानि पृथ्वीकायिक जीव के द्वारा मुक्त पुद्गल माने जा सकते हैं। विद्युत् का उत्पादन मनुष्य द्वारा निर्मित यंत्रों से है, इसलिये क्या मनुष्य का नामकर्म उसके लिए जिम्मेदार माना जायेगा? यदि नहीं तो फिर तेजोलेश्या में मनुष्य के नामकर्म को कैसे जिम्मेदार माना जाएगा? जब जैन दर्शन विरसा परिणमन द्वारा अचित्त (निर्जीव) पुद्गलों के परिणमन को स्वीकृति दे रहा है, तो फिर उसके लिए केवल जीव को ही सर्वत्र जिम्मेदार मानना कहाँ तक संगत होगा?
जहाँ-जहाँ जीव का शरीर स्वयं आतप, उद्योत आदि के रूप में हैं वहाँ-वहाँ वह नामकर्म का उदय है, ऐसा अभिप्राय विभिन्न उद्धृत वचनों का समझना चाहिए। किन्तु जहाँजहाँ पुद्गल ऐसे रूप में हैं, वहाँ उन्हें पौद्गलिक परिणमन ही स्वीकार करना चाहिए।
जैन दर्शन के अनुसार बतलाए गए तीन प्रकार के परिणमनों में प्रायोगिक और मिश्र परिणमनों में अनंतर रूप में जीव का कर्तृत्व होता है, किन्तु वैस्रसिक परिणमन में अनंतर रूप में केवल पौद्गलिक परिणमन ही कारणभूत होता है। ऊपर उद्धृत टिप्पण संख्या 41 में सूत्रकृतांग चूर्णि (10, 128, 129) के जो पाठ दिये गये हैं, उनमें नारक की अग्नि को स्वभाव से उष्ण एवं अचेतन बतलाया गया है। इन्हें अनंतर रूप में जीव कृत नहीं माना जा सकता। प्रश्न में परंपर और अनंतर के भेद को समझने की कोशिश नहीं की गई, इसीलिए सर्वत्र जीव के साथ सीधे ही पौद्गलिक परिणमनों को जोड़ा है। फिर तो बादल, जो अपकायिक जीव का परिणमन है और जो आकाशीय बिजली के उत्पादक हैं, को भी मिश्र
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तुलसी प्रज्ञा अंक 124
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