Book Title: Tulsi Prajna 2004 04
Author(s): Shanta Jain, Jagatram Bhattacharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 47
________________ इन सब सेलों में प्रत्यक्षतः कोई हिंसा दिखाई नहीं देती। इस प्रकार विद्युत् उत्पन्न करने के साधन हिंसाजन्य भी है, हिंसा-मुक्त भी हैं। साधन हिंसाजन्य हो या न हो पर निष्पन्न विद्युत् स्वयं अचित्त है, ऐसा मानने में कोई आपत्ति नहीं है। प्रश्न-13 "राख से ढ़के हुए सुलगते अंगारों में प्रकाश-गरमी इत्यादि तेउकाय के लक्षण स्पष्ट रूप से नहीं दिखाई देने पर भी वह सजीव बादर अग्निकाय स्वरूप है, यह बात निर्विवाद स्वरूप में सभी जैनों को मान्य है। इस अग्नि को विध्यातअग्नि (-सुषुप्त अग्निकाय जीव) के रूप में पिंडनियुक्ति (गाथा-५६१)ग्रंथ में श्री भद्रबाहुस्वामीजी ने बताया है। वहाँ सजीव अंगारों पर यदि घासलेट या पेट्रोल डाला जाए तो तुरंत ही वहाँ विस्फोट-प्रकाशगरमी उत्पन्न होते हैं। उसी प्रकार तीव्रतम D.C. (DirectCurrent) याA.C. (Alternating Current) इलेक्ट्रीसीटी जिसमें से प्रसारित होती है उस खुले वायर को ज्यादा प्रमाण में ओजोन वायु का सम्पर्क हो तो उस खुले वायर में से भूरे (Blue) रंग का प्रकाश कोरोना इफेक्ट से अपने आप प्रकट होता हुआ दिखाई देता ही है। जंगल के आसपास के वातावरण में कुदरती प्रक्रिया से उत्पन्न हो रहे प्रचुर ओजोन के कारण, विशेष तौर पर सर्दी की रात में तीव्रतम ए.सी./डी.सी. पावर वाले खुले वायर में से बहुत जल्दी सवेरे के समय भूरे रंग का प्रकाश निकलता हुआ दिखाई देता है। खुले ट्वीस्टेड वायर में से अत्यंत तेजी से प्रवाहमान घर्षणयुक्त इलेक्ट्रीसीटी पूर्वोक्त विध्यात अग्निकाय जीव ही है। इसीलिए ओजोन स्वरूप इन्धन के संपर्क में आने के साथ ही वह भूरे प्रकाश में दिखाई देती है तथा तीव्र वेग से घर्षणपूर्वक ए.सी. पावर जिसमें से प्रसारित होता है उस वायर के माध्यम से बल्ब में रहे हुए फिलामेंट में बिजली आते ही वहाँ तुरन्त उष्णता-प्रकाश इत्यादि प्रकट होते हैं। शोर्ट सरकीट से आग लगने के कई किस्से बनते ही हैं। लीकेज हुए या टुटे हुए दो वायर यदि एक साथ मिल जाएं और उसमें से इलेक्ट्रीसीटी पसार होती हो तो उसमें से प्रकाश के रूप में चिनगारियाँ निकलती हुई दिखाई देती हैं। इस प्रकार इलेक्ट्रीसीटी तेउकाय जीवस्वरूप ही सिद्ध होती है। वास्तव में इन सभी बातों द्वारा तेउकाय जीव को समझने के लिए सूक्ष्म बुद्धि की आवश्यकता है। श्री अभयदेवसूरिजी महाराज ने भगवतीसूत्र व्याख्या में तथा ज्ञाताधर्मकथावृत्ति में 'भस्मच्छन्नोऽग्निः बहिर्वृत्त्या तेजोरहितो ऽन्तर्वृत्त्या तु ज्वलति' (भाग-२/१,११४/ ज्ञा.१,१,४० मेघकुमार) ऐसा कहने के द्वारा तथा प्रश्नव्याकरण सूत्र व्याख्या में भस्मच्छन्नो वह्निः अन्तः ज्वलति, बहिःम्लानो भवति' (२/५,४५) अर्थात् 'राख से ढकी हुई आग बाहर से निस्तेज दिखाई देती है। फिर भी अन्दर से तो सुलगती ही है', ऐसा कह कर बताया है कि राख से ढकी हुई अग्नि में बाहर से वैसी उग्रता-प्रकाश-दाह-गरमी इत्यादि लक्षण नहीं दिखाई देते हैं फिर भी अन्दर से सुलगने के कारण वह तेउकाय स्वरूप ही है-ऐसा सूचित किया है। उसी 42 - ___ तुलसी प्रज्ञा अंक 124 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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