Book Title: Tulsi Prajna 2004 04
Author(s): Shanta Jain, Jagatram Bhattacharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 26
________________ 1991 में कांग्रेस की एक अल्पमत सरकार के वित्तमंत्री मनमोहनसिंह ने इन नीतियों की घोषणा करके दुनिया को ही नहीं, भारतवासियों को भी हैरत में डाल दिया। इन नीतियों का नियन्त्रण अब विश्व व्यापार संगठन (डब्ल्यू. टी. ओ.) के हाथों में है। नयी आर्थिक नीति ने भारतीय संविधान की मूल भावना यानि जनकल्याणकारी समान अवसर प्रेरित नीतियों को अलविदा कर दिया। 1 जनवरी 1995 से डंकल प्रस्ताव पूरी तरह लागू हो गया, उसके अनुसार शिक्षा और स्वास्थ्य जैसी बुनियादी सेवाएं भी व्यापार में शामिल कर ली गयीं। विश्व व्यापार संगठन की यह मंशा है कि इन क्षेत्रों में राष्ट्रीय-बहुराष्ट्रीय कंपनियों द्वारा निवेश हो। अब सरकार पर घोषित-अघोषित दबाव है कि शिक्षा जैसी बुनियादी जिम्मेदारियों से भी वह दूर हो, और सब्सिडी कम करते-करते उसे समस्त कर दे। केन्द्र सरकार ने शिक्षा के वर्तमान प्रारूप में आमूलचूल बदलाव के लिए मुकेश अम्बानी और कुमारमंगलम बिड़ला की समिति का गठन किया। इस समिति ने अप्रैल 2000 में अपनी सिफारिशें सरकार को सौंप दी। फिलहाल प्रधानमंत्री सलाहकार समिति द्वारा गठित इस समिति की अनुशंसाएँ विचाराधीन हैं। अनुशंसा की संस्तुतियाँ किस तरह व्यापक जन को उच्च शिक्षा की दुनिया से बेदखल करती हैं, इस पर विस्तारपूर्वक चर्चा आगे की जाएगी। यहाँ सवाल यह उठता है कि क्या किसी भी संस्था या सरकार को बहुजन के श्रम से अर्जित मुनाफे या लाभ का अनुत्तरदायी विकास, जिसका लाभ केवल सुविधा सम्पन्न तबके तक पहुँचे, की छूट दी जा सकती है? सवाल केवल यह नहीं है कि बाजार आधारित अर्थव्यवस्था सही है या सरकारी गतिविधियों द्वारा नियंत्रित अर्थव्यवस्था? सच तो यह है कि दोनों तरह की अर्थव्यवस्थाओं का चरित्र सन्दर्भ-निर्भरता से ही तय होगा। शिक्षा जैसी जनकल्याकारी दुनिया को मुनाफे के तात्कालिक दर्शन से जोड़ना अतार्किक, अदूरदर्शी और विडम्बनापूर्ण होगा जो अपनी जद में पूरी व्यवस्था को समाहित कर लेगा। अर्थशास्त्री ज्यां द्रीज और अमर्त्य सेन पूर्वी एशिया के देशों से भारत का तुलनात्मक अध्ययन प्रस्तुत करते हुए यह मानते है कि चीन जैसे देश में शिक्षा जैसे मूलभूत जनकल्याणकारी क्षेत्र में सरकारी ध्यान ने उसे तेजी से विकसित किया है। भारत को लोकतंत्र तो बनाए रखना चाहिए परन्तु सामाजिक अवसर प्रदान करने वाले सभी कार्यक्रम अविलम्ब आरम्भ कर देने चाहिए। पहले से ही अनेक विडम्बनाओं और ध्रुवांतों में विभाजित भारतीय व्यवस्था केवल उदारीकरण से समतामूलक लक्ष्य हासिल नहीं कर सकती। मात्र उदारीकरण एवं नियन्त्रण तंत्र में ढील देने पर मौलिक नीतिगत सुधार पिछली आयोजन व्यवस्था में रह गयी त्रुटियों को कभी दूर नहीं कर पाएँगे।.... बाजार व्यवस्था एवं सरकारी गतिविधियों द्वारा अर्थव्यवस्था के संचालन के सापेक्ष गुण-दोषों पर बहुत समय से चर्चा होती रही है, किन्तु दोनों ही प्रकार की निर्णय पद्धतियों की एक साझी विशेषता रही है, संदर्भ निर्भरता। अन्य शब्दों में किन्हीं विशेष संदर्भो में यदि बाजार बहुत ही लाभप्रद एवं कुशल प्रतीत होती है तो किन्हीं अन्य संदर्भो में सरकारी हस्तक्षेप के बिना अर्थतंत्र का तार्किक और सही तरीके से काम करना असंभव ही रहता है। तुलसी प्रज्ञा अप्रैल-जून, 2004 - - 21 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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