Book Title: Tulsi Prajna 2004 04
Author(s): Shanta Jain, Jagatram Bhattacharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

View full book text
Previous | Next

Page 29
________________ औद्योगिक उत्पादन व्यवस्था में भागीदारी के अनुरूप संप्रेषण की योग्यता से सम्पन्न हों। इसके विपरित भारत में प्राथमिक एवं माध्यमिक शिक्षा के प्रति विचित्र सी उदासीनता दिखायी देती है। हम कह सकते हैं कि तथाकथित योजनाबद्ध विकास कार्यक्रमों के बावजूद इस क्षेत्र में सरकार बहुत अधिक हस्तक्षेप' नहीं बहुत कम योगदान' की दोषी रही है। दरअसल भारतीय शिक्षा-व्यवस्था में ढाँचागत बदलाव हुआ ही नहीं, ऐसा भी नहीं था कि अवधारणाओं का अकाल था, बहुत पहले गाँधी के स्वराज दर्शन में बुनियादी शिक्षा और भारतीय शैक्षिक परिदृश्य पर विचार हुए थे। लेकिन मूलतः यथास्थितिवादी समर्थक मैकालेवादी शिक्षा पद्धति में हालांकि राष्ट्रीय शिक्षा-नीतियों के आलोक में थोड़े बहुत संशोधन भी हुए, पर कमोबेश इसने राष्ट्रीय और लोकतांत्रिक मूल्यों का धीरे-धीरे हास ही किया और व्यक्तिगत स्वार्थसिद्धि के कौशल को समृद्ध किया। इसी बीच 1 जनवरी 1995 से डंकल प्रस्ताव के लागू होने के उपरांत यह सहमति बनी कि विकासशील देशों की अर्थव्यवस्था में सुधार के लिए सार्वजनिक व जनहित क्षेत्रों में दी जाने वाली सब्सिडी को धीरे-धीरे कम करते हुए समाप्त कर दिया जाए। इसके लिए विश्व व्यापार संगठन (डब्ल्यू. टी. ओ.) और अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष ने ढाँचागत समायोजन के कार्यक्रम चलाए। एक प्रावधान यह भी रखा गया कि कोई भी सरकार विश्व व्यापार संगठन के अंतर्गत् आने वाले विषयों के संदर्भ में देशों और विदेशी कम्पनियों के साथ एक तरह का रवैया अपनाएगी। चालीस से भी अधिक देशों ने शिक्षा को निजी क्षेत्रों के लिए खोलने की बात की है। इन सारी प्रक्रियाओं, सुनियोजित षड़यंत्र के तरीकों द्वारा अंजाम दिया गया। शिक्षाजगत की हलचलों और बदलावों पर जागरूक और चौकन्नी दृष्टि रखने वाले विचारक सुरेश पंडित कहते हैं, 'तीसरी दुनिया के देशों की शिक्षा प्रणालियों को अपने कब्जे में लेकर राजनैतिक, आर्थिक व सामाजिक जीवन को अपने अनुरूप बदल डालने की साजिश 1990 में थाईलैंड के जोमतीन नगर में हुई कांफ्रेंस में रची गई। इसका आयोजन यूनिसेफ, यू एन डी पी, यूनेस्को तथा विश्व बैंक की पहल पर हुआ था। इसमें विकसित देशों की आत्मा अचानक द्रवित हो उठी थी और वे गरीब देशों के लोगों को 2000 तक शिक्षित कर देने के लिए उदारतापूर्वक आर्थिक सहायता देने को उतावले हो उठे थे। विश्व बैंक, यूरोपीय समुदाय, ब्रिटिश ओवरसीज डेवलपमेन्ट एजेंसी (ओडी) और स्वीडिश इंटरनेशनल डेवलीपमेन्ट असिस्टेंस (सीडा) जैसी दानदाता एजेंसियों ने तो अपने खजानों के दरवाजे इस काम के लिए खोलने की अभूतपूर्व तत्परता दिखला दी। जाहिर है, उनकी यह दयार्द्रता स्वतः स्फूर्त नहीं थी। वे यह सब एक दूरगामी निवेश के तौर पर कर रहे थे ताकि इनमें विकसित देशों के उत्पादों के लिए बाजार तैयार हो जाए और यहाँ के लोग उनके माल के उपभोक्ता बन जाए। उनकी सहायता की शर्तों में सर्वप्रमुख शर्त यह थी कि दान प्राप्त करने वाले देशों को उनकी 24 - - तुलसी प्रज्ञा अंक 124 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110