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वेतन या मानदेय 200 रु. से 5000 रुपये तक है। क्या यह दुःखद आश्चर्य की बात नहीं है कि समता आधारित समाज निर्माण और सामाजिक न्याय के लिए प्रतिबद्ध कोई भी संगठन इस सरासर अन्याय के विरुद्ध आवाज नहीं उठा रहा है। न ही वह सरकार जो भारतीय संविधान के उस प्रावधान को मानती है जिसके अनुसार यहाँ का प्रत्येक नागरिक समान हैसियत रखता है, इस भेदभाव को मिटाने के लिए कोई सख्त कदम उठाती है।' 11
इस विशाल तंत्र के बावजूद, 'विद्यालयी शिक्षा के क्षेत्र में भारत की स्थिति सहारेतर अफ्रीका जैसा ही है जबकि अफ्रीकी देशों के विपरीत भारत में राजनैतिक अस्थिरता, तानाशाही, गृहयुद्धों और बार-बार अकालों से मुक्त शांति और सर्जनात्मक व्यवस्था रही है। लेकिन इन अच्छे हालात का लाभ उठाने में हम असफल ही रहे। 12 अब भारत सरकार वित्तीय घाटे का रोना रो-रो कर और अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं के इशारे पर इस क्षेत्र में सब्सिडी खत्म कर, विभिन्न स्वयंसेवी संगठनों से सहयोग हेतु याचना कर रही है।
इस काम के लिए सरकारें सम्मोहक तंत्र की वकालत करने लगी हैं। मध्यप्रदेश की तर्ज पर राजस्थान के वित्तीय घाटा का हौवा खड़ा कर सरकार ने अनुदान प्राप्त शैक्षिक संस्थाओं के अनुदान में कटौती शुरू कर दी। एक तरफ अनुदान कटौती दूसरी तरफ प्रबन्धन को असीमित अधिकार, यह सरकार की रणनीति थी। शिक्षक संगठनों ने इसका जोरदार विरोध किया, फिलहाल राजनैतिक दबावों और कारणों से सरकार ने अनुदान यथावत रखा है पर सरकार नीतिगत बदलावों को लेकर किस कदर आतुर और जनविरोधी रुख अख्तियार करने वाली है, इसे सरकार की प्रस्तावित नयी शिक्षा-नीति के संदर्भ में स्पष्टता से समझा जा सकता है। 17 अगस्त, 2001 को एस. एन. थानवी (सचिव, सैकेण्डरी एवं उच्च शिक्षा, राजस्थान सरकार) ने 'रिफार्स इंन एजुकेशन नाम से एक रिपोर्ट तैयार की है, जिसे प्रस्तावित शिक्षा-नीति के रूप में क्रियान्वयन की सरकार की योजना है।
सरकार किस तरह अपनी जिम्मेदारियों से हाथ खींचने की तैयारी कर रही है- उसे फिलहाल दो तरह से समझा जाए- पहली प्रस्तावना यह है कि, 'अनुदान को पहले स्थिर किया जाय, फिर धीरे-धीरे कम कर समाप्त कर दिया जाय, क्योंकि सरकारी-तंत्र घनघोर आर्थिक संकट से गुजर रहा है। जो संस्थाएँ समाज के वंचित तबके के लिए काम कर रही हैं, उन्हें एक निश्चित समय के लिए अनुदान दिया जाय। वर्षों से अनुदान प्राप्त संस्थाओं में अनुदान कम कर समाप्त करने की नीति बने, फिर उनका नए संस्थानों हेतु आवंटन एक निश्चित समय के लिए हो। यह आवंटन प्राईवेट सेक्टर के ऐसे संस्थानों के लिए हो जो शैक्षिक रूप से पिछड़े क्षेत्र में कार्यरत हैं। 13 उसी तरह दूसरी प्रस्तावना है कि 'सभी विद्यालयों को 'विद्यालय विकास समिति' संस्था से निबंधित कर प्रबन्धन तंत्र को पूरी स्वायत्तता दे दी जाय। यह समिति समूचे तंत्र का नियंत्रण करें। गौर करने की बात है कि लम्बे अर्से से काम कर रहे, अनुदान प्राप्त शैक्षिक संस्थाओं के पास उपलब्धियों की शानदार तुलसी प्रज्ञा अप्रैल-जून, 2004
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