Book Title: Tulsi Prajna 2004 04
Author(s): Shanta Jain, Jagatram Bhattacharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 14
________________ ब्रह्मज्ञान की कुंजी माना है। ब्रह्म का स्वरूप बाह्य साधनभूत इन्द्रियादि के द्वारा सर्वथा अज्ञेय है। उसे जानने के लिए उसके सदृश ही अलौकिक साधनों का होना आवश्यक है। जीवों को क्रियाशीलता प्रदान करने वाली गूढ अलौकिक चेतना को देखकर ही जगत् को संचालित करने वाली किसी सर्वोच्च सत्ता का अनुमान किया जाता है। आत्म तत्त्व के कारण ही जड़ पदार्थों से निर्मित नश्वर शरीर चेतन प्रतीत होता है। वास्तव में शरीर के भीतर अपनी कोई चेतन शक्ति नहीं है। आत्म तत्त्व के कारण ही वह चेतन और क्रियाशील होता है। इसलिए आत्मा ब्रह्म सत्ता का बोधक होने के साथ ही ब्रह्मज्ञान का साधन भी है। जीवों के ह्रदय में विराजमान मूलतत्त्व का व्यष्टिगत ज्ञान आत्मा का ज्ञान है तथा आत्मा का समष्टिगत ज्ञान ही परमात्मा का ज्ञान है। आत्मा का ज्ञान होने पर परमात्मा का ज्ञान स्वयमेव हो जाता है, क्योंकि तात्त्विक दृष्टि से दोनों एक ही हैं। जीव समुदाय के रूप में ब्रह्म अपने को ही अभिव्यक्त करता है। प्रत्येक शरीर के विविध स्वभाव और आकारों के फलस्वरूप आत्मा भी अनेक स्वरूपों वाला दिखाई देने लगता है। इस अनेकरूपत्व को केवल मानवीय आत्मा के द्वारा ही जाना जा सकता है तथा अनुभूत किया जा सकता है। __ श्री अरविन्द एवं उपनिषद् जहाँ आत्मतत्त्व को मानवीय शरीर में स्थित आत्मा द्वारा श्रेय मानते हैं, मनोनुशासनम् में आचार्य तुलसी उस आत्मस्वरूप का अनावरण करने के लिए एकमात्र मन को ही अधिकारी समझते हैं। वे मानव विकास के तीन स्तरों को आत्मोदय के सोपान स्वरूप मानते हैं। प्रथम ऐन्द्रिक विकास स्तर से आरम्भ करके आत्मा के मानसिक विकास की यौगिक आसन, प्राणायाम आदि प्रक्रियाओं से मन का संयमन एवं निरोध करते हुए अतीन्द्रिय ज्ञान की चरमावस्था ही मनोनुशासनम् की आत्म स्वरूप उपलब्धि है। ज्ञान की प्रारंभिक विकास की अवस्था में मानव को केवल इन्द्रियों के विषयों का ज्ञान ही एकमात्र ज्ञान प्रतीत होता है, तत्पश्चात् विकास की द्वितीय अवस्था में साधक की ज्ञान प्रतीति का विषय मन होता है। यह मानसिक विकास की छः अवस्थाओं में से प्रथम अर्थात् मन की मूढावस्था है जो पूर्णरूपेण मिथ्यादृष्टि, मिथ्या चरित्रमोह आदि वृत्तियों से आवृत्त रहती है। मन की इस अवस्था में योग साधना का बीजारोपण भी नहीं होता। मन की द्वितीय अवस्था में मन विक्षिप्त मानव की भाँति विचरणशील होता है, इसीलिए इसे विक्षिप्तावस्था कहा गया है। विक्षिप्तता की दशा में ही मानव मन कभी अन्तर्मुखी और कभी बहिर्मुखी होने लगता है। किन्तु पूर्णरूपेण न तो वह बहिर्मुखी होता है और न ही अन्तर्मुखी। इसीलिए मन की इस अवस्था को यातायात कहा गया है। इसी अवस्था से मानव मन में योगांकुर उद्भूत होने लगते हैं और मन अपने लक्ष्य में स्थिर होने लगता है। इसे मन की श्लिष्टावस्था' कहा गया है। यही श्लिष्ट मन जब पूर्णरूपेण अपने लक्ष्य में लीन होने लगता है तो वह सुलीनत्व की अवस्था को प्राप्त हो जाता है। तुलसी प्रज्ञा अप्रैल-जून, 2004 - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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