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समस्त बंधनों से परे रहता है। शरीर में रहते हुए अपने आत्मतत्त्व को जान लेना जीवन्मुक्ति है। वह एक शरीर में स्थित होते हुए भी सभी शरीरों में एक ही आत्मा का दर्शन करता है जिससे वह मानव सुलभ दोषों से भी सर्वथा परे हो जाता है। अज्ञानी व्यक्ति अहंकारिक वृत्ति के वशीभूत एक जीव को दूसरे से भिन्न समझता है। तात्त्विक दृष्टि से सबके भीतर विद्यमान चेतन सत्ता एक ही है।
जीवन मुक्ति के उपरान्त साधक ज्ञान की द्वितीय अवस्था अर्थात् बुद्धत्व की स्थिति में प्रवेश करता है। इसकी चरम परिणति की अवस्था में साधक प्रत्येक पदार्थ को आत्मा में समाया हुआ देखता है । जगत् का कोई भी पदार्थ उसे आत्मा से भिन्न प्रतीत नहीं होता है। इस अवस्था तक पहुँचते हुए साधक समस्त लौकिक बंधनों का त्याग कर चुका होता है तथा इस अवस्था की अन्तिम स्थिति तक वह बोध को प्राप्त हो चुका होता है। इस अवस्था में शरीर त्याग देने पर उक्त पुरुष पुनर्जन्म लेने के लिए स्वतन्त्र होता है। उसका जन्म अन्य अज्ञानियों की भाँति कर्मफल के वशीभूत न होकर उसकी इच्छा पर आधारित होता है। यदि वह लोककल्याणार्थ किसी अवतार की भाँति जन्म लेता है तथा अपने शरीर के आवश्यक धर्मों का निर्वाह करता है तब भी वह किसी प्रकार के कर्मबंधन में नहीं पड़ता है। वह सभी कर्मों को ईश्वर के प्रति समर्पण और त्याग के भाव से करता है। वह ईश्वर के द्वारा ही प्रत्येक कर्म का सम्पादन मानता है तथा स्वयं को ईश्वर के कर्तृत्व का एक साधन मात्र समझता है।
श्री अरविन्द से पूर्व किसी भी अद्वैतवेदान्ती ने इस तथ्य को स्वीकार नहीं किया है। वे सब मुक्ति के बाद अतिशय आनन्द के रूप में आत्मा की एक शून्यावस्था की कल्पना करते हैं। श्री अरविन्द आत्मज्ञानी को केवल अपने लिए ही नहीं, अपितु अन्य अज्ञानियों के लिए भी उपयोगी मानते हैं। ज्ञानी-मुक्त पुरुष का जीवन अन्य अज्ञानियों से सर्वथा भिन्न तथा दोषरहित होता है। आत्मैक्य दर्शन के कारण वह मानवदोष-लोभ, मोह, क्रोध, राग, द्वेष आदि से सर्वथा परे होता है।
द्वितीय अवस्था को प्राप्त करने के उपरान्त यदि जीवन मुक्त पुरुष संसार में अवतरित होना नहीं चाहता तो इसके लिए भी वह पूर्ण स्वतन्त्र होता है। ये दोनों ही अवस्थायें शरीर में वर्तते हुए जगत् में ही प्राप्त की जा सकती हैं। ब्रह्म-प्राप्ति की अवस्था लय की अवस्था है। इसके लिए जीवन मुक्त साधक को कोई प्रयत्न नहीं करना पड़ता है। बोध प्राप्त जीवात्मा को मृत्यु के उपरान्त यह स्थिति स्वयं ही प्राप्त हो जाती है। इस अवस्था में परमात्मा और आत्मा दोनों एक हो जाते हैं। मूलत: भी दोनों एक ही हैं। विलय को प्राप्त आत्मा स्वयं ब्रह्म ही हो जाता है। यही मानव जीवन का प्रमुख ध्येय तथा जीव की परम गति है।
शरीर में रहने पर आत्मा में तात्त्विक दृष्टि से कोई परिवर्तन अथवा विकार उत्पन्न नहीं होता है। पुरुष के द्वारा स्वयं को समझ लेना ही आत्मज्ञान है। इसलिए ज्ञान-अज्ञान का आत्मा पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता है। अनेक शरीरों में रहने पर भी आत्मा एक ही रहती है। वह
तुलसी प्रज्ञा अप्रैल-जून, 2004
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