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गंभीर अध्ययन करने पर कुछ सच्चाइयां सामने आती हैं। इसलिए सबके मन में बहुत स्पष्ट रहे कि गुरुदेव ने जो बहुत अनुसंधान और खोज के बाद निर्णय दिया था कि बिजली सचित्त नहीं है, अचित्त है। इसलिए चाहे इलैक्ट्रोनिक के उपकरण हों आपके पास, चाहे घड़ी हो या कोई और उपकरण। वहां हमारी स्पष्ट धारणा है कि इनका उपयोग कर हम कोई दोष नहीं कर रहे हैं। ऐसा करने में कोई अग्निकायिक जीव की हिंसा नहीं हो रही है।
परम्परा की बात बड़ी विचित्र होती है। मैं तो यह सोचता हूँ कि हमारे जैन विद्वानों और जैन मुनियों को परम्परा के साथ-साथ थोड़ा गंभीर अध्ययन और गंभीर अनुसंधान की बात भी जोड़नी चाहिए। जैनधर्म और दर्शन के इतने बड़े तत्त्व, किन्तु अनुसंधान के अभाव में हम कुछ बता न सकें, यह चिन्तनीय बात है। अब जैसे-जैसे इन पर काम हो रहा है, खोज हो रही है, यहां के और विदेशी विद्वानों के द्वारा बहुत-सी बातें सामने आ रही हैं तो अब लग रहा है कि इतनी बड़ी सच्चाइयां हैं, जो अभी तक हमारे सामने नहीं आई थीं। विश्वविद्यालय की कुलपति सुधामहीजी ने दिल्ली में अनेकान्त पर भाषणमाला का आयोजन किया, उस भाषणमाला में पहला भाषण संस्थान के कुलाधिपति श्री लक्ष्मीमल्ल सिंघवी का था। एक ईसाई विद्वान् जो पादरी था, उसने एक प्रस्ताव रखा कि यह सिद्धान्त इतना ऊँचा है कि अब आपको एक ग्लोबल इंस्टीट्यूट की स्थापना करनी चाहिए, जिससे पूरे विश्व को पता चले कि अनेकान्त कितना महत्त्वपूर्ण है। आवश्यकता है कि हम लोग थोड़ी दिशा बदलें और आज के वैज्ञानिक साधन, आगमिक साधन और अन्य दर्शनों के तुलनात्मक अध्ययन के बाद कुछ ऐसे निष्कर्ष निकालें, स्थापना करें जो सारी मानव जाति के लिए कल्याणकारी हो सकें। केवल परंपरा के नाम पर यह न कहें कि हम ऐसा नहीं मानेंगे। आपकी इच्छा है, मत मानो, पर वह दूसरों के लिए प्रमाण नहीं हो सकता। मैं मानूं या नहीं मानूं, पर प्रमाण तो वही होगा जो युक्तिसंगत, तर्कसंगत और सिद्धान्तपरक हैं, प्रमाणित हैं।
__परम्परा की बात अलग है। दो-तीन युवक साथ में जा रहे थे। एक ने पूछ लियाआपने जो यह अंगरखा पहन रखा है, वह तो बहुत पुरानी परम्परा है। उसने कहा, यह मेरे कुल की परम्परा है। परम्पराएँ चलती हैं, पर सार्थक वही है, जिसकी प्रामाणिकता सिद्ध हो, जो उपयोगी हो, अन्यथा वह मात्र बाधा ही बनकर रह जाती है। फिर पूछा-आजकल तो दाढ़ी और बाल छोटा रखने की परम्परा है। तुमने तो बाल बढ़ा रखे हैं। उसने कहा-यह मेरे कुल की परम्परा है। न मेरे बाप ने शादी की, न मेरे दादा ने की। अब देखें, इस तरह की परंपरा में कितना विरोधाभास आ जाता है। कोरी परम्परा की दुहाई कहां तक देते रहेंगे?
हमें परम्परा का सम्मान करना है, उसे छोड़ना नहीं है बल्कि उसी परंपरा को नहीं छोड़ना है जिसका कोई अर्थ है, जिसकी कोई सार्थकता है। एक आदमी का पिता दिवंगत हो गया। उसका क्रम था कि रोज सवेरे उठकर वह आले के पास जाता था। पुत्र भी गया। पिता आले के पास क्यों जाता था, पुत्र को पता नहीं, फिर भी वह गया और रोज का उसका यह क्रम बन गया। किसी ने पूछ लिया भोजन के बाद तुम आले के पास क्यों जाते हो? उसने कहा-मेरे पिताजी भी जाते थे और वे क्यों जाते थे, यह भी मुझे पता है। उनके दांत में छिद्र तुलसी प्रज्ञा अक्टूबर-दिसम्बर, 2002 -
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