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उत्तराध्ययन में प्रतीक
प्रतीक : स्वरूप विश्लेषण
'प्रतीयते येन इति प्रतीक : ' - जिसके द्वारा किसी अर्थ - विशेष या वस्तुविशेष की प्रतीति हो, वह प्रतीक है । इस अन्वय के अनुसार प्रतीक वह है जो अपने से भिन्न किसी अन्य प्रतीयमान अर्थ का बोध कराता है। लोकमान्य तिलक ने 'गीता रहस्य' में प्रतीक शब्द की व्याख्या करते हुए उसकी संरचना 'प्रति' और 'इक' के योग से मानी। जिसका अभिप्राय है (किसी के) प्रति झुका हुआ। उनके कथनानुसार 'जब किसी वस्तु का कोई एक भाग पहले गोचर हो और फिर आगे उस वस्तु का (सम्पूर्ण सम्यक्) ज्ञान हो तब उस भाग को प्रतीक कहते हैं।" इस दृष्टि से प्रतीक अपने भीतर किसी पदार्थ के संकेत छिपाए रखने वाला तत्त्व है। सांकेतिक शब्दों से वस्तु या गुण को व्यक्त कर देना प्रतीक का कार्य है । कला का वैशिष्ट्य छुपाव है, प्रदर्शन नहीं। इस दृष्टि से प्रतीक अलंकरण या प्रसादन के हेतु हैं।
प्रतीक में सम्पूर्ण की अप्रत्यक्ष अभिव्यक्ति होती है। 2 किसी जीव - वस्तु, दृश्य-अदृश्य, प्रस्तुत- अप्रस्तुत वस्तु का प्रतिनिधित्व करने वाली शक्ति प्रतीक है । 'प्रतीक वह जादुई कुंजी है जो सभी द्वारों को खोल सकती है। प्रतीक को अंग्रेजी में 'सिम्बल' कहा गया है। डॉ. नागेन्द्र ने प्रतीक को रूढ़ उपमान व अचल बिम्ब माना है। उनका कथन है कि जब उपमान स्वतंत्र न रहकर पदार्थ विशेष के लिए रूढ़ हो जाता है तब वह प्रतीक बन जाता है ।" डॉ. रामकुमार वर्मा के अनुसार- 'जिस प्रकार मधु का एक बिन्दु सहस्रों पुष्पों की सुगन्धि एवं मकरन्द का संश्लिष्ट रूप है उसी प्रकार एक प्रतीक अनेकानेक मानव जगत् और वस्तु जगत् के कार्य-व्यापारों का संकलन है । साहित्य के इतिहास में मंत्र से लेकर आत्मबोध की अनेकानेक भावनाएं इसी प्रतीक द्वारा उबुद्ध हुई है। प्रतीक व्यष्टि में समष्टि का संपोषण है ।
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काव्य भाषा प्रतीकों के रथ पर सवार होकर अपना सफर तय करती है । प्रतीक गुह्य अर्थ-पटल को खोलने वाली वह कुंजी है जो आकार में लघु होते हुए भी भाव जगत् के विशाल प्रासाद में प्रवेश के द्वार उन्मुक्त करती है । काल की तुलसी प्रज्ञा अक्टूबर-दिसम्बर,
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- समणी अमितप्रज्ञा
2002
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