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नाम कर्म और शरीर रचना विज्ञान
- साध्वी आरोग्यश्री
यह दृश्यमान चराचर जगत् बहुआयामी है। अनेक विचित्रताओं को अपने में समेटे हुए है। एक बार गणधर गौतम ने भगवान् महावीर से पूछा-भंते। विश्व में सर्वत्र तरतमता है, विभिन्नता है। विभिन्न प्रकार के व्यक्तियों के विभिन्न व्यवहार, विभिन्न आचरण, उनकी आकृति में भिन्नता, प्रकृति में भिन्नता, शक्ति और सामर्थ्य में तरतमता दिखाई देती है। जगत् के इस वैचित्र्य को देखकर प्रश्र उठता है कि यह तरतमता क्यों? विविधता क्यों? भगवान् ने गौतम स्वामी को समझाते हुए कहा- गौतम्। संसार की विचित्रता का हेतु है कर्म। भगवान् बुद्ध ने भी अभिधम्मकोश में लोक की विचित्रता को कर्म रूप में स्वीकार किया है -'कर्मजं लोक वैचित्र्यम्'।
कर्म सिद्धान्त भारत के आस्तिक दर्शनों की आधारशिला है। कर्म की नींव पर ही आस्था व श्रद्धा का भव्य महल टिका हुआ है। अध्यात्म को कर्म सिद्धान्त के आधार पर ही व्याख्यायित किया जा सकता है।
कर्म शब्द का सामान्य अर्थ है-क्रिया प्रवृत्ति या कार्य । जैनदर्शन के अनुसार कर्म का अर्थ है
"आवारकाः अन्तरायकारकाश्च विकारकाः।
प्रियाप्रियनिदानानि पुद्गला कर्म संज्ञिताः॥" जो पुद्गल आत्मा (ज्ञान, दर्शन, चारित्र) को आवृत्त करते हैं, आत्म-शक्ति के विकास में विघ्न डालते हैं या नष्ट करते हैं, आत्मा को विकृत करते हैं, प्रिय और अप्रिय में निमित्त बनते हैं वे कर्म कहलाते हैं।
आज के इस तार्किक और बौद्धिक युग में कर्म सिद्धान्त को विज्ञान के परिप्रेक्ष्य में समझना बहुत जरूरी है। उसे विज्ञान की कसौटी पर कस कर प्रयोग और परीक्षण के माध्यम से सहज बुद्धिग्राह्य किया जा सकता है। अतः प्रत्येक सिद्धान्त
शास्त्रसम्मत होने के साथ-साथ विज्ञानसम्मत भी होना चाहिए। तुलसी प्रज्ञा अक्टूबर-दिसम्बर, 2002 0
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