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अह्निपटन में शकुन शास्त्र सम्बन्धी नरपति जय चर्या अथवा नरपतिजय वर्णन नामक ग्रंथ की रचना की। इसका अन्य नाम स्वरोदय अथवा सारोधार भी है। इसमें व्यक्ति के स्वर के आधार पर शुभाशुभ परिणामों का विवेचन किया गया है। यह भी माना जाता है कि उन्होंने ज्योतिष से सम्बन्धित ज्योतिष कल्पवृक्ष नामक एक अन्य ग्रंथ की रचना की, पर उसकी पांडुलिपि अभी अनुपलब्ध है। इसकी लोकप्रियता का अनुमान इससे भी लगाया जा सकता है कि हरिवंश, नरहरि, भूधर, रामनाथ प्रभृति विद्वानों द्वारा इस ग्रंथ पर विभिन्न युगों में अनेकानेक टीकाएँ लिखी गयी है।
जैनाचार्य उदयप्रभदेव (1220 ई.) विजयसेन सूरि के शिष्य माने जाते हैं। उन्होंने आरम्भ सिद्धि अथवा व्यवहारचर्या नामक एक अनुपम ज्योतिष ग्रंथ की रचना की, जिस पर रत्नेश्वरसूरि के शिष्य हेमहंस गणि ने 1457 ई. (वि.सं. 1514) में एक टीका लिखी। यह एक मुहूर्त ग्रंथ है, जिसमें धार्मिक कार्यों एवं उत्सवों के लिये उपयुक्त समय की गणना एवं तत्संबंधी अन्य बातों का विस्तार से विवेचन किया गया है। यह एक अत्यन्त उपयोगी ग्रंथ है।
जैन ज्योतिषाचार्य पद्मप्रभसूरि, वामदेवसूरि के शिष्य थे। इन्होंने संस्कृत में भुवन-दीपक नामक एक ज्योतिष ग्रंथ की रचना 1237 ई. (वि.सं. 1294 में) की। प्रश्न शास्त्र से सम्बद्ध यह एक छोटी परन्तु अनुपम कृति है। जिसमें 170 श्लोकों में एतद्विषयक महत्त्वपूर्ण जानकारी संकलित हैं। 1269 ई. में सिंह तिलकसूरि द्वारा इस पर विवृत्ति नामक एक टीका भी लिखी गयी।
___ठक्कुर फेरू जैन ज्योतिष के प्रसिद्ध विद्वान् हुये, जिनका समय 1265-1330 ई. माना जाता है। ये दिल्ली के सुल्तानों के दरबार में विशिष्ट पद पर आसीन थे। विभिन्न वैज्ञानिक एवं तकनीकी विषयों से सम्बद्ध प्राकृत भाषा में उन्होंने 6 पुस्तकों की रचना की, जिनके नामवास्तुसार, ज्योतिष-सार, गणितसार, रत्न-परीक्षा, धातु पट्टी एवं द्रव्य-परीक्षा हैं। ज्योतिषसार जातक विषयक महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है।18
नरचन्द्र उपाध्याय कासद्रुहगच्छ के सिंहसूरि के शिष्य थे। बेड़ाजातकवृत्ति, प्रश्रशतक, प्रश्रचतुर्विशंतिका, जन्मसमुद्र सटीक, लग्न विचार एवं ज्योति-प्रकाश आदि अनेक गणितीय एवं ज्योतिष सम्बन्धी ग्रंथों के वे प्रणेता थे। मान्यतानुसार ये सभी ग्रंथ आज भी उपलब्ध है। 1050 श्रीकों में निबद्ध बेड़ाजातक वृत्ति एक उपयोगी जातक ग्रंथ है जिसकी रचना 1267 ई. (वि.सं. 1324) में की गयी। ज्योतिप्रकाश भी फलित ज्योतिष का एक अनुपम ग्रंथ है, जिसमें मुहूर्त एवं संहिता विषयक सामग्री प्रचुर मात्रा में उपलब्ध है । दिगम्बर जैन परम्परानुसार नारचन्द्र नामक ज्योतिष ग्रंथ के भी वे रचयिता माने जाते हैं। मान्यतानुसार इन्होंने ज्ञानदीपिका नामक ग्रंथ की रचना की जिसकी पांडुलिपि वर्तमान में अप्राप्त है।
भृगुफर के मदनसूरि के शिष्य जैन ज्योतिषाचार्य महेन्द्रसूरि फिरोज शाह तुगलक के दरबार में प्रधान पंडित थे। उन्होंने 1270 ई. में ग्रह गणित से सम्बन्धित 5 अध्यायों में यन्त्रराज नामक एक पुस्तक की रचना की, जिसमें गणितीय गणना एवं ग्रहवेध के आधार पर सिद्धान्तों की स्थापना की गयी है। ज्योतिष के विभिन्न सिद्धान्तों के साथ-साथ इसमें पंचांग-निर्माण सम्बन्धी विधियों का प्रतिपादन किया गया है। उनके शिष्य मलयेन्दु सूरि ने इस पर टीका लिखी जिसमें सिद्धान्तों की व्याख्या को स्पष्ट करने के लिए अनेक उद्धरणों से मण्डित किया गया है। 96 -
- तुलसी प्रज्ञा अंक 118
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