Book Title: Tulsi Prajna 2002 10
Author(s): Shanta Jain, Jagatram Bhattacharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 89
________________ यद्यपि श्रमण संस्कृति में भी चार वर्ण हैं किन्तु इनका आधार कर्म है, वर्ण (जन्म) नहीं। ब्राह्मण यहां भी श्रेष्ठ है किन्तु पौरुहित्य कर्म द्वारा नहीं। उनका शुद्ध आचरण एवं उच्च जीवनदृष्टि ही इसका आधार रही। इसी भांति क्षत्रिय वीर है, विजेता है तथा जिन है परन्तु उसकी विजय का आधार युद्ध नहीं बल्कि सद्कर्म है- इन्द्रियों पर विजय । बाह्य विजय की अपेक्षा आभ्यंतर विजय के आधार की विचारधारा के कारण ही जैन-धर्म दर्शन की आज के आपाधापी वाले युग में प्रासंगिकता बनी हुई है । 1 परिवर्तन जीवन की अनिवार्यता है । श्रमण-संस्कृति का स्याद्वाद इसी की व्याख्या करता है । स्याद्वाद के अनुसार परिवर्तन रहित कोई स्थायित्व नहीं है और स्थायित्व रहित कोई परिवर्तन नहीं। दोनों अपृथक्भूत है । परिवर्तन स्थायी में ही हो सकता है एवं स्थायी वही हो सकता है जिसमें परिवर्तन हो । भावार्थ यह है कि निष्क्रियता तथा सक्रियता, स्थिरता और गतिशीलता का जो सहज समन्वित रूप है, वही द्रव्य है । प्रत्येक द्रव्य अपने केन्द्र में ध्रुव, स्थिर एवं निष्क्रिय है। उसके चारों ओर परिवर्तन की अटूट श्रृंखला है। इसी मौलिक दृष्टि ने जैन-धर्म-दर्शन को मौलिकता प्रदान की है तथा उसे सामयिक बनाया है। समन्वय के लिए सहनशील होना जरूरी है, जो जैन धर्म-दर्शन में उपस्थित है। यह बात दूसरी है कि स्वयं जैन समाज उसे कहां तक ग्रहण किये हुए है । इसी बात पर अपनी चिन्ता अभिव्यक्त करते हुए आचार्य श्री महाप्रज्ञजी का जातिवाद के सदंर्भ में कथन है- " जैन आचार्य भी जातिवाद से अछूते नहीं रहे - यह एक सत्य है, इसे हम दृष्टि से ओझल नहीं कर सकते। आज भी जैनों पर जातिवाद का कुछ असर है। समय की मांग है कि जैन इस विषय पर पुनर्विचार करे । ' 119 जैन धर्मदर्शन के सैद्धान्तिक साहित्य की भांति ही उनके ऋषि-मुनियों द्वारा रचित लौकिक साहित्य (जीवनशैली) में भी जैनेतर संतों की-सी व्यावहारिकता का परिचय मिलता है । इनकी रचनाओं के अध्ययनोपरान्त एकदम ऐसा लक्षित नहीं होता है कि यह शुद्ध रूप से धार्मिक अथवा पंथ विशेष का साहित्य है । मध्यकालीन भारतीय समाज में अनेक धार्मिक विचारधाराएं पल्लवित रहीं । भक्ति सम्बन्धित अनेक सम्प्रदाय अस्तित्व में आये, किन्तु जैन साहित्य को भक्ति साहित्य की विषयवस्तु के रूप में सिर्फ आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने ही स्वीकारा । वस्तुतः जैन भक्ति - साहित्य का लेखन विधिवत रूप से आठवीं शताब्दी से ही लिखा जाता रहा है।° उद्योतनसूरि की कुवलयमाला इसका प्रमाण है I इस प्रकार जैन साहित्य के सृजन की परम्परा दीर्घकालिक है। दूसरे शब्दों में यह कहा जा सकता है कि जैन साहित्य पुष्पदंत - उद्योतन सूरि से आचार्य तुलसी, आचार्य हस्ती तक लगातार लिखा जाता रहा है। इनकी रचनाओं में भक्ति तत्व के साथ ही सामयिकता का पूर्ण चित्रण मिलता है । इसीलिए यह साहित्य वर्तमान परिस्थितियों में भी प्रासंगिक लगता है। इक्कीसवीं शताब्दी कम्प्यूटरजनित है। 19वीं शताब्दी के जैन कवि आनन्दघन की निम्नलिखित पंक्तियां आज के युग में भी सटीक लगती हैं, जिनमें परभाव और बाहर भटकने की मानव प्रवृत्ति को मूढ़ कर्म कहकर घट में बसे अनन्त परमात्मस्वरूप का ध्यान करने के लिए कहा है 86 Jain Education International For Private & Personal Use Only तुलसी प्रज्ञा अंक 118 www.jainelibrary.org

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