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भी विभिन्न ग्रन्थागारों में उपेक्षित पड़े हुए हैं। कुछ समय से विद्वानों की दृष्टि इन ग्रन्थों के अध्ययन और अन्वेषण की ओर गयी है, जिससे एतद् विषयक अनेक जानकारी प्रकाश में आ सकी है। जैन-ज्योतिषाचार्यों द्वारा रचित ज्योतिष सम्बन्धी रचनाओं की क्रमबद्ध सूची का भी अत्यन्त अभाव है। विभिन्न सूत्रों से उपलब्ध सूचनाओं के आधार पर इन ग्रंथों का कालक्रमानुसार संक्षिप्त परिचय प्रस्तुत करना इस शोध निबन्ध का अभीष्ट है।
जैन आगमिक साहित्य का अवलोकन करने से ज्ञात होता है कि इन ग्रंथों में अनेकानेक ज्योतिषीय सिद्धान्त सन्निहित हैं। स्थानांग, प्रश्नव्याकरणांग, समवायांग, सूत्र कृतांग आदि द्वादशांग साहित्य (500 ई.पू.) में नवग्रहों, नक्षत्र, राशि, युग, दक्षिणायन एवं उत्तरायण, सूर्यचन्द्र ग्रहण आदि बातों का वृहद् विवेचन उपलब्ध होता है।
सूर्य-प्रज्ञप्ति, चन्द्र-प्रज्ञप्ति एवं जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति प्राचीन ज्योतिष के प्रामाणिक एवं मौलिक ग्रंथ माने जाते हैं। इनका रचनाकाल लगभग 500 ई.पू. माना जाता है। प्राकृत भाषा में रचे गये इन ग्रंथों के अतिरिक्त अन्य ग्रन्थों में ज्योतिष्करण्डक एवं गर्ग संहिता के नाम भी स्वीकार किये जाते हैं।
सूर्य-प्रज्ञप्ति पर टीका एवं भद्रबाहु-संहिता के प्रणेता जैनाचार्य एवं अन्तिम श्रुतकेवली भद्रबाहु माने जाते हैं। इनका समय 318 ई.पू. माना जाता है। विद्वद् वर्ग की मान्यतानुसार भद्रबाहु मगध के निवासी थे तथा कालान्तर से मैसूर के श्रवणबेलगोला नामक स्थान पर बस गये। श्वेताम्बर परम्परानुसार इसी नाम से एक दूसरे विद्वान् 5वीं शती में हुए, जो कि प्रसिद्ध ज्योतिर्विद वराहमिहिर के अनुज समझे जाते हैं तथा जिन्होंने वराहमिहिरकृत बृहत्संहिता की तरह ही भद्रबाहु-संहिता नामक एक अनुपम ज्योतिष ग्रंथ की रचना की। ऐसी मान्यता है कि यह ग्रंथ संस्कृत एवं प्राकृत दोनों ही भाषाओं में रचा गया। पर वर्तमान में संस्कृत में लिखित कतिपय भाग ही उपलब्ध हैं। मान्यतानुसार द्वितीय भद्रबाहु को जन्म-प्रदीप नामक एक अन्य ज्योतिष ग्रंथ की रचना का श्रेय भी जाता है।'
प्राचीन काल से ही अंग-विज्जा नामक ज्योतिष ग्रन्थ लोकप्रिय रहा है। प्राकृत में लिखा सामुद्रिक शास्त्र से सम्बन्धित यह एक अद्वितीय एवं विशाल ग्रंथ है। इसमें 60 अध्याय एवं 9 हजार श्लोक प्रमाण हैं । मनुष्य की शारीरिक रचना एवं उसके अंगों के आधार पर इस ग्रन्थ में फलादेश दिया गया है तथा सभी तरह के प्रश्नों के सटीक उत्तर दिये जाने के नियमों का निरूपण किया गया है। अज्ञातकर्तृक इस ग्रन्थ का प्रणयन भाषा एवं शैली की दृष्टि से अनुमानतः तृतीय एवं चतुर्थ शताब्दी माना जा सकता है।
अन्य जैन ज्योतिर्विदों में आचार्य ऋषिपुत्र का नाम प्रसिद्ध है जो कि आचार्य गर्ग के पुत्र माने जाते हैं तथा इनका समय आर्यभट्ट प्रथम (476 ई.) से पूर्व समझा जाता है। इनके द्वारा रचे गये ग्रंथों में फलित ज्योतिष पर प्रथम शकुनशास्त्र से सम्बन्धित निमित्त शास्त्र तथा द्वितीय संहिता ग्रन्थ है। वर्तमान उपलब्ध निमित्त शास्त्र में वर्षोत्पात, देवोत्पात, उल्कोत्पात, रजोत्पात आदि अनेक उत्पातों द्वारा शुभाशुभत्व का निर्णय लिया गया है। माना जाता है कि इनका संहिता-ग्रंथ सम्भवतः भारत वर्ष में एतद्विषयक सर्वप्रथम ग्रंथ है और इसलिये महत्त्वपूर्ण है। मदनरत्न एवं वराहमिहिर की वृहत्संहिता पर भट्टोत्पल की लिखी टीका आदि तुलसी प्रज्ञा अक्टूबर-दिसम्बर, 2002 2
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