Book Title: Tulsi Prajna 2002 10
Author(s): Shanta Jain, Jagatram Bhattacharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 87
________________ जैन साहित्य और दर्शन की प्रासंगिकता -डॉ. मनमोहन स्वरूप माथुर भारतीय धर्म-दर्शन के क्षेत्र में ब्राह्मण-श्रमण, प्रवृत्ति-निवृत्ति और आस्तिकनास्तिक शब्दयुग्मों का प्रचलन प्राचीन है। वस्तुतः ये शब्द और युग्म भारतीय जीवन पद्धति को और उसके चिंतन को दर्शाने वाले हैं। ब्राह्मण धर्म या दर्शन (संस्कृति) सनातन है तो श्रमण धर्म-दर्शन (संस्कृति) परवर्ती। बौद्ध और जैनधर्म के आचारांग श्रमण हैं और इनमें दीक्षित भिक्षु एवं श्रावक। इस प्रकार वैदिक धर्म प्रायः ब्राह्मण धर्म-दर्शन कहलाया जबकि श्रमण धर्म-दर्शन विशिष्ट रूप से जैन संस्कृति के लिए प्रयुक्त होने लगा। इन तीनों शब्द युमों में धर्म-दर्शन के लिए लोक प्रचलित पद ब्राह्मण-श्रमण ही प्रयुक्त रहा। इसके विपरीत आस्तिक-नास्तिक का अर्थ धर्म को मानने वालों के अर्थ में तथा प्रवृत्ति-निवृत्ति उनकी फल प्राप्ति के रूप में प्रचलित रहा अर्थात् मोक्ष-प्राप्ति वाला धर्म प्रवृत्तिमार्गी एवं मोक्ष न करवाने वाला धर्म निवृत्तिमार्गी कहलाया। प्रायः आस्तिक और ब्राह्मण संज्ञक धर्म-दर्शन प्रवृत्तिमार्गी एवं आचारांग अथवा श्रमण-आश्रित धर्म-दर्शन निवृत्तिमार्गी कहे जाते हैं। किन्तु निरपेक्ष भाव से यह कहना उचित नहीं कि श्रमण परम्परा शुद्ध रूप से नास्तिक तथा निवृत्तिमार्गी ही है। साथ ही यह भी भ्रांति ही है कि ब्राह्मण परम्परा विशुद्ध प्रवृत्तिमार्गी अथवा आस्तिक ही है। वस्तुत: न तो श्रमण परम्परा निंदक है और न ही ब्राह्मण परम्परा श्रमण विरोधी। भारतीय समाज में दोनों परम्पराओं का सात्विक समन्वय रहा है। यह बात जैन आचारांगों से भी प्रमाणित है। त्रिपिटक (बौद्ध) एवं उत्तराध्ययन (जैन) में वर्णित कथाएं तथा दृष्टांत इसके प्रमाण हैं। दोनों ही विचारधाराओं का आधार आत्मा है। अन्तर यही है कि ब्राह्मण धर्म-दर्शन एकात्मवाद से प्रभावित है जबकि जैनदर्शन अनेकात्मवादी है। इसी आधार पर जैन धर्म-दर्शन में पुनर्जन्मवाद को महत्त्व मिला। 84 तुलसी प्रज्ञा अंक 118 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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