Book Title: Tulsi Prajna 2002 10
Author(s): Shanta Jain, Jagatram Bhattacharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 77
________________ जीव सहित पुद्गल द्रव्य का परिणमन कर्मरूप हो तो पुद्गल और जीव-- ये दोनों ही कर्मरूप में एकपने को प्राप्त हो जाना चाहिए और यदि अकेले पुद्गल द्रव्य का ही परिणाम कर्मरूप में हो तो जीव के रागादि भावों के बिना ही हो जाना चाहिए, पर ऐसा नहीं होता है। कर्म जीव से सम्बद्ध है, आत्मप्रदेशों में मिले हुए हैं, यह व्यवहारनय का पक्ष है और कर्म जीव में अबद्धस्पृष्ट है अर्थात् बंधे हुए नहीं हैं, ऐसा शुद्धनय का कथन है। जीव कर्म से बद्ध है, जीव कर्म से अबद्ध है, ये सब नयपक्ष हैं, किंतु समयसार रूप आत्मा इन पक्षों से दूरवर्ती है। शुभ और अशुभ कर्म-अशुभ कर्म तो पापरूप है, बुरा है और शुभकर्म पुण्यरूप है, अच्छा है, ऐसा सर्वसाधारण कहते हैं, परन्तु परमार्थ दृष्टि से देखें तो जो कर्म इस जीव को रागारात्मक शरीर रूप संसार में ही बनाए रखता है, वह कर्म अच्छा कैसे हो सकता है? जैसे बेड़ी सोने की बनी हो, चाहे लोहे की बनी हुई हो, दोनों ही तरह की बेड़ियां पुरुष को साधारण रूप से जकड़ कर रखती हैं । इसी प्रकार चाहे शुभ कर्म हो या अशुभ कर्म हो, वह साधारण रूप से जीव को संसार में रखता है।6 (अ) ज्ञानी अभोक्ता है- ज्ञानी जीव सब ही द्रव्यों के प्रति होने वाले राग को छोड़ देता है, अतः वह ज्ञानावरणादि कर्मसहित होकर भी नवीन कर्म रज से लिप्त नहीं होता, जैसे कि कीचड़ में पड़ा हुआ सोना जंग नहीं खाता है, किंतु अज्ञानी जीव सभी द्रव्यों में राग रखता है, इसलिए कर्मों के फंदे में फंसकर नित्य नए कर्मबंध किया करता है, जैसे कि लोहा कीचड़ में पड़ने पर जंग खा जाया करता है।” ज्ञानी जीव निर्वेद समापन्न अर्थात् वैराग्य सहित होता है, इसलिए वह मीठा या कडुवा आदि अनेक प्रकार वाले कर्मफल को जानता है, फिर भी वह उसका भोक्ता नहीं होता है। ज्ञानी अनेक प्रकार के कर्मों को न तो करता ही है और न भोगता ही है, परन्तु कर्म के बंध को तथा कर्मफल पुण्य और पाप को जानता भी है। जैसे चक्षु देखने योग्य पदार्थ को देखता ही है, उसका कर्ता तथा भोक्ता नहीं है, उसी प्रकार ज्ञानी भी बंध, मोक्ष, कर्मोदय के उदय तथा कर्मों की निर्जरा को जानता ही है। कर्ता भोक्ता नहीं होता है। अमूर्त आत्मा के बंध का कारण: प्रश्न-रूपादि गुणयुक्त होने से मूर्तिमान पुद्गल का अन्य पुद्गल के साथ बंध होना उपयुक्त है, किंतु आत्मा तो रूपादिगुण रहित है। वह किस प्रकार पौद्गलिक कर्मों का बंध करता है?20 उत्तर-आत्मा स्वयं रूप, रस, गंध तथा वर्णरहित है, फिर भी वह रूप, रस आदि युक्त द्रव्य तथा गुणों को देखता है तथा जानता है। इसी प्रकार रूपादिरहित आत्मा रूपी कर्मपुद्गलों से बंध को प्राप्त होता है। द्रव्यकर्मबंध और भावकर्मबंध-गोम्मटसार कर्मकाण्ड में "पोग्गलपिंडो दव्वं" पुद्गल के पिण्ड को द्रव्यकर्म कहा है, उसमें रागादि उत्पन्न करने की शक्ति भावकर्म है। अध्यात्मदृष्टि से जीव के प्रदेशों का सकम्प होना भावकर्म है। जीव के प्रदेशों के कम्पन द्वारा पुद्गलकर्मों का जीव प्रदेशों में आगमन होता है। पश्चात् राग, द्वेष, मोहवश बंध होता है। 74 - तुलसी प्रज्ञा अंक 118 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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