Book Title: Tulsi Prajna 2002 10
Author(s): Shanta Jain, Jagatram Bhattacharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 82
________________ सन्दर्भ : 1. पं. कैलाशचन्द्र शास्त्री : जैन साहित्य का इतिहास, भाग-1, पृ. 304 2. इन ग्रंथों के संक्षिप्त परिचय के लिए देखें--1.जैन साहित्य का इतिहास भाग-1 (पं. कैलाशचन्द्र शास्त्री द्वारा लिखित) एवं जैन साहित्य का वृहद् इतिहास, भाग-4 (डॉ. मोहनलाल मेहता एवं प्रो. हीरालाल कापड़िया) 3. जैन साहित्य का वृहद् इतिहास, भाग-4, पृ. 114 4. आचार्य कुन्दकुन्द, पंचास्तिकाय-65 वही, 67, 6. वही,68, 7.वही, 69 8. पंचास्तिकाय-133 9. समयसार -82, 10. 85, 11. 86-88, 12. 89-90, 13. 140-144 14. 145-146, 15.147-148, 16.149-50, 16. 153-154, 17.230-231 18. 339,19.340-341, 20. प्रवचनसार 173,21. 174 22. कषायपाहुड़ सूत्र की पं. सुमेरुचन्द्र दिवाकर द्वारा लिखित प्रस्तावना, पृ. 33 23. पुग्गलविइदेहोदयेण मण वयण काय जुत्तस्स। जीवस्सजा हु सत्ती कम्मागमकारणं जोगो॥ गो.जी. 216 24. धवला पु. 1, पृ. 279 25. प्रकृति स्वभावः-सर्वार्थसिद्धि 8/3 26. तेषामेव कर्मरूपेण परिणतानां पुद्गलानां जीवप्रदेशेः सह यावत्काल मनस्थितिः स स्थितिबन्धः मूला., पृ. 5/47 27. कम्माणं समकज्जकरणसत्ती अणभागो णाम (जयधवला 5, पृ. 2) 28. अशुद्धान्तंस्तत्व कर्मपुद्गलयोः परस्परप्रदेशानुप्रवेशः प्रदेशबन्धः॥--नियमसार वृत्ति 40 29. णाणमववोहो अवगमो परिच्छेदो इदि एयट्ठो। तभावरेदि त्ति णाणावरणीयं कम्मं ॥ धवला पु. 6, पृ. 6 30. दसणस्स आवारयं कम्मं दंसणावरणीयं (धवला पु. 13, पृ. 208) दंसणसीले जीवे दंसणघायं करेइ जं कम्मं । तं पडिहारसमाणं दंसणावरणं भवे वीयं । जह रण्णोपहिहारो अणभिप्पेयस्स सो उलोयस्स। रण्णो तहि दरिसावं न देइ दट्ठ पि कामस्स । जह राया तह जीवो पडिहारसमंतु दसणावरणं । तेणिह विवंधरएणं न पिच्छइ सो घर्डाइयं ।। कर्म वि.ग. 19-21 31. वेद्यत इति वेदनीयम् अथवा वेदयतीति वेदनीयम्। जीवस्स सुहदुक्खाणुहवणणिवंधणो पोग्गलक्खंधो मिच्छत्तादिपच्चयवसेण कम्मपजयचरिणदो जव समवेदो वेदणीयमिदि भण्णदे ॥ ध.पु. 6, पृ. 10 32. मुहयत इति मोहनीयं अथवा मोहयतीति मोहनीयम् । ध.पु. 6, 12 33. एति भवधारणं प्रति इत्यायुः। जे पोग्गला मिच्छत्तादिकारणेहिं णिरयादि भवधारणसत्ति परिणदा जीवणि वट्धा ते आयुअसण्णिदा होंति ॥ धव.पु. 6, पृ. 12 34. नामयति परिणमयत्यात्मानं तैस्तैर्मत्यादिभिः पर्यायेरिति नाम ॥ कर्मस्त.गो. पृ. 10, पृ. 17 35. गमयत्युच्चनीचकुलमिति गोत्रम् उच्चनीचकुलेशु उप्पादओपोगालक्खंधो मिच्छतादिपच्चएहि जीवसंबद्धो गोदमिदि उच्चदे (धव.पु. 6, पृ. 12, पु. 13, पृ. 20) संताणकमेणागयजीवायरणस्स तुलसी प्रज्ञा अक्टूबर-दिसम्बर, 2002 - 79 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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