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जायदि जीवस्सेवं भावो संसारचक्कवालम्मि। इदि जिणवरेहिं भणिदो अणादिधिणो सणिधणो वा ।।
जो वास्तव में संसारस्थित जीव है, उससे परिणाम होता है, परिणाम से कर्म और कर्म से गतियों में गमन होता है। गति प्राप्ति से देह होती है, देह से इन्द्रियां होती हैं और इन्द्रियों से विषयग्रहण और विषयग्रहण से राग अथवा द्वेष होता है। ऐसे भाव संसारचक्र में जीव को अनादि अनन्त अथवा अनादि सांत होते हैं।
कर्म मूर्त हैं, क्योंकि कर्म का फल जो विषय है, वे नियम से मूर्त स्पर्शनादि इन्द्रियों द्वारा जीव द्वारा सुख रूप से अथवा दु:ख रूप से भोगे जाते हैं, इसलिए कर्म मूर्त हैं।
आत्मा के कर्मों के कर्तृत्व-भोक्तृत्व के प्रति अनेकान्त–समयसार में कहा है कि ज्ञानी जीव अनेक प्रकार पुद्गल द्रव्य के पर्याय रूप कर्मों को जानता हुआ भी तन्मयता के साथ पर द्रव्य की पर्यायों में उन स्वरूप न तो परिणयमता है और न ग्रहण ही करता है और न उन रूप उत्पन्न ही होता है। पुद्गल द्रव्य भी पर द्रव्य की पर्याय रूप में न तो परिणमन ही करता है और न कभी उसको ग्रहण ही करता है और न उस रूप में कभी उत्पन्न ही होता है, किंतु अपने आपके परिणामों से ही परिणमन करता है। यद्यपि जीव के राग-द्वेष परिणामों का निमित्त पाकर पुद्गल द्रव्य कर्मत्व रूप परिणमन करता है, वैसे ही पौद्गलिक कर्मों के उदय का निमित्त पाकर जीव रागादि रूप परिणमन करता है, तथापि जीव कर्म के गुण रूपादि को स्वीकार नहीं करता, उसी भांति कर्म भी जीव के चेतनादि गुणों को स्वीकार नहीं करता, किंतु केवल मात्र इन दोनों का परस्पर एक दूसरे के निमित्त से विकार-परिणमन होता है। इस कारण से वास्तव में आत्मा अपने भावों से ही अपने भावों का कर्ता होता है किंतु पुद्गल कर्मों द्वारा किए गए सर्वभावों का कर्त्ता नहीं है। निश्चय नय की अपेक्षा आत्मा अपने आपका ही कर्ता है और अपने आपका ही भोक्ता है। व्यवहारनय की अपेक्षा आत्मा अनेक प्रकार के पुद्गल कर्मों का कर्ता है और उन्हीं अनेक प्रकार के कर्मों का भोक्ता भी है।2. कर्मवर्गणाओं का समूह कैसे आता है?
जीव के जो अतत्त्व रूप श्रद्धान होता है, वह मिथ्यात्व का उदय है। उनके (जीवों के) जो त्यागभाव का अभाव है, वह असंयम का उदय है। इसी प्रकार जो स्वरूप का अन्यथा जानता है, वह अज्ञान का उदय है तथा जो जीवों के उपयोग का मैलापन है, वह कषाय का उदय है और जो जीवों के शुभाशुभ रूप मन, वचन, काय की उत्साहात्मक चेष्टाविशेष होती है, वह योग का उदय है। इन पांचों में से किसी के भी होने पर जो कर्मवर्गणाओं का समूह आता है, वह ज्ञानावरणादि के रूप में आठ प्रकार का होकर अवश्य ही जीव के साथ सम्बद्ध होता है, उस समय उन मिथ्यात्वादि भावों का यह जीव कारण होता है।
जीव के जो रागादि विकारभाव होते हैं, वे यदि वास्तव में कर्म के भी होते हैं तो जीव और कर्म ये दोनों ही रागादिमान् होने चाहिए, किंतु ऐसा होता नहीं। यदि अकेले जीव के ही रागादि परिणाम मान लिए जायें तो कर्मोदय के बिना भी हो जाने चाहिए। इसी प्रकार यदि तुलसी प्रज्ञा अक्टूबर-दिसम्बर, 2002
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