Book Title: Tulsi Prajna 2002 10
Author(s): Shanta Jain, Jagatram Bhattacharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 75
________________ संस्कृत की कृ धातु से निकला है, जिसका अर्थ करना है। प्रत्येक क्रिया हमारे ऊपर कुछन-कुछ संस्कार छोड़ जाती है, इनके संस्कारों से बचा नहीं जा सकता । प्राय: यह समझा जाता है कि जैसा हम बोते हैं, वैसा काटते हैं। यदि हम अच्छे कार्य करते हैं तो हम सुखी रहते हैं और यदि हम बुरे कार्य करते हैं तो दुःखी रहते हैं। दूसरे शब्दों में सुख पुण्य का फल है। और दुःख पाप का फल है। केवल क्रियाएं ही नहीं, अपितु विचार और अनुभूतियां भी अपना फल देती हैं। जैनदर्शन की यह विशेषता है कि जहां वह भले-बुरे कार्यों के प्रेरक विचारों से आत्मा में संस्कार मानता है, वहां उस संस्कार के साथ एक विशेष जाति के सूक्ष्म पुद्गलों का आत्मा से सम्बन्ध होना भी मानता है । परमात्म प्रकाश में कहा है " विषय तथा कषायों के कारण आकर्षित होकर जो पुद्गल के परमाणु जीव के प्रदेशों में लगकर उसे मोहयुक्त करते हैं, उन्हें कर्म कहते हैं।" पुद्गल द्रव्य की तेईस प्रकार की वर्गणाओं में कार्मण वर्गणा कर्म रूप होती हैं तथा आहार, तैजस, भाषा और मनोवर्गणा नोकर्मरूपता को प्राप्त होती हैं। शेष अष्टादश प्रकार का पुद्गल कर्म नोकर्मरूपता को प्राप्त नहीं होता है । उसका आत्मा के साथ सम्बन्ध होने के लिए यह आवश्यक है कि उपर्युक्त पंच प्रकार की वर्गणाओं के रूप में परिणत हो । विसय कसायहिं रंगियहं, जे अणुया लग्गंति । जीव एसहिं मोहियहं ते जिण कम्म भवंति ॥62 लोक सर्वत: विविध प्रकार के अनन्तानन्त सूक्ष्म तथा बादर पुद्गलकायों द्वारा अवगाहित होकर गाढ़ हुआ है। आत्मा ( मोह, राग, द्वेष रूप) अपने भाव को करता है, तब वहां रहने वाले पुद्गल अपने भावों से जीव में अन्योन्य अवगाह रूप से प्रविष्ट हुए कर्मभाव को प्राप्त होते हैं । जिस प्रकार पुद्गल द्रव्यों की अनेक प्रकार की स्कन्ध रचना पर से किए गए बिना होती दिखाई देती है, उसी प्रकार कर्मों की बहुप्रकारता पर से अकृत जानना चाहिए। जीव और पुद्गलकाय अन्योन्य अवगाह के ग्रहण द्वारा परस्पर बद्ध है । काल से पृथक् होने पर सुख-दुःख देते और भोगते हैं। इसलिए जीव के भाव से संयुक्त कर्म कर्त्ता है, चेतक भाव के कारण कर्मफल का भोक्ता तो जीव मात्र है।' इस प्रकार अपने कर्मों से कर्त्ता, भोक्ता होता हुआ आत्मा मोहाच्छादित बर्तता हुआ सांत अथवा अनन्त संसार में परिभ्रमण करता रहता है। कर्म से संसार चक्र - पुद्गल जब आत्मा के साथ बंध जाते हैं, तब वे तत्काल या कालान्तर में सुख या दुःख रूप फल देते हैं। आचार्य कुन्दकुन्द ने पंचास्तिकाय में कहा हैजो खलु संसारत्थो जीवो तत्तो दु होदि परिणामो । परिणामादो कम्मं कम्मादो होदि गदिसु गदी ॥ गदिमधिगदस्स देहो देहादो इंदियाणि जायंते ॥ तेहिं दु विसग्गहण तत्तो रागो व दोसो वा ॥ 72 Jain Education International For Private & Personal Use Only --- तुलसी प्रज्ञा अंक 118 www.jainelibrary.org

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