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'जं णं पदेसकम्मं तं नियमा वेदेइ । वत्थ णं जंणं अणुभागकम्म, तं अत्थेगइयं वेदेइ, अत्थेगइयं णो वेदेइ। वस्तुत: संश्लेष की दृष्टि से प्रदेश-बंध ही वास्तविक बंध है।'
संक्षेप में, यह चातुर्विध्यात्मक बंध प्रक्रिया जैन-दर्शन के वैशिष्ट्य का सूचक है। विस्तार के भय से प्रस्तुत निबंध में अनेक विषयों का उल्लेख मात्र ही हुआ है, शेष बहुत अवशेष है। फिर भी यह इतना बताने के लिए पर्याप्त है कि जैनदर्शन में कर्म न केवल चैतसिक है और न केवल पौद्गलिक। बंध एक प्रकार की रासायनिक प्रक्रिया है, जिसके कारण आत्मा और पुद्गल, जो सर्वथा भिन्न-भिन्न प्रतिपक्षी सत्ताएं हैं, मिलकर एक हो जाती हैं। दोनों की स्वतंत्रता और अस्मिता नष्ट होकर एक नई परिणति हो जाती है। संसारी जीव नामक तृतीय प्रजाति, जो कथंचित् मूर्त और कथंचित् अमूर्त है, का आविर्भाव होता है। कर्मबंध से लेकर कर्मफल तक की इतनी सुन्दर और स्वत: संचालित व्यवस्था है जिसमें तृतीय तत्त्व-ईश्वर की भी अपेक्षा नहीं। कर्मसिद्धांत का अध्ययन कर्ममुक्ति में योगभूत बने- यही इस प्रयास की अर्थवत्ता है।
संदर्भसूची 1. तत्त्वार्थसूत्र 8/2 2. षड्दर्शनसमुच्चय 51 3. सर्वार्थसिद्धि 8/2 4. तत्त्वार्थराजवार्तिक1/4 5. भगवतीसूत्र 1/312 6. कर्मग्रंथ 1/2 7. जैनदर्शन : मनन और मीमांसा, पृ. 280 8. तत्त्वार्थसूत्र 8/3 9. कर्मग्रंथ 1, पृ. 107 (परिशिष्ट) 10. सवार्थसिद्धि 8/4 11. तत्त्वार्थ राजवार्तिक 8/4 12. गोम्मटसार कर्मकाण्ड गा. 7 13. जैनसिद्धान्त दीपिका 4/3 14. गोम्मटसार कर्मकाण्ड गा. 21 15. भगवतीसूत्र 6/3 16. तत्त्वार्थराजवार्तिक 8/4 17. गोम्मटसार कर्मकाण्ड गा. 16-20 18. कर्मग्रंथ 1, पृ. 107-8 (परिशिष्ट)
19. कर्मग्रंथ 1/3 20. जैनसिद्धान्त दीपिका 4/9 21. वही, 4/9 की वृत्ति 22. वही, 4/10 की वृत्ति 23. कर्मग्रंथ 4/65 24. पंचसंग्रह गा. 150 25. नन्दी, मलयगिरीया वृत्ति पत्र 77-78 26. जैन सिद्धान्त दीपिका 4/10 27. वही,4/11 28. कर्मग्रंथ 5/78-79 29. गोम्मटसार कर्मकाण्ड गा. 185 30. पंचसंग्रह 284 31. कर्मग्रंथ 5/78-80 32. पंचसंग्रह 285 33. गोम्मटसार कर्मकाण्ड गा. 183 34. कर्मग्रंथ 5/89 35. भगवतीसूत्र 1/190
सम्पर्क सूत्र- जैन विश्व भारती
लाडनूं (राजस्थान)
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तुलसी प्रज्ञा अंक 118
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