Book Title: Tulsi Prajna 2002 10
Author(s): Shanta Jain, Jagatram Bhattacharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 69
________________ क्रम कई पीढियों तक चलता रहता है। जलवायु या स्थान परिवर्तन के पश्चात् भी उनके रंग में बदलाव नहीं आता। एक दृष्टि से देखा जाए तो यह शाश्वत नियम क्यों? त्वचा के वर्ण निर्धारण में वर्ण नामकर्म के उदय से व्यक्ति के शरीर का रंग गोरा या काला होता है। __ शरीर विज्ञान की दृष्टि से त्वचा का चौथा स्तर है --- प्रारोही स्तर (The Stratum Germinatirum)। प्रारोही स्तर में विद्यमान वर्णक कोशिकाओं (Pigment Cell) के कारण हमारी त्वचा का रंग गोरा या काला होता है। ये कोशिकाएं शरीर में जितनी कम होती हैं त्वचा का रंग उतना ही साफ होता है तथा ये कोशिकाएं जितनी अधिक होती हैं त्वचा का रंग उतना ही काला होता है। कुछ जाति विशेष में ये कोशिकाएं अधिक पाई जाती हैं। जैसे-अफ्रिकन, निग्रो, हब्शी आदि लोगों में । परिणामस्वरूप वहां के व्यक्ति काले होते हैं। अमेरिका जैसे ठंडे देश के लोग गोरे होते हैं, क्योंकि उनमें इन कोशिकाओं की मात्रा कम होती है। शरीर में सफेद दाग या धब्बे भी इन्हीं के कारण होते हैं। इस प्रकार वर्ण नामकर्म की तुलना त्वचा के प्रारोही स्तर की वर्णक कोशिकाओं के साथ की जा सकती है। ___ हमारे शरीर की त्वचा में स्निग्धता और रूक्षता के दोनों गुण विद्यमान रहते हैं। किंतु कुछ व्यक्तियों की त्वचा अत्यधिक तैलीय व स्निग्धता से युक्त होती है तो कुछ व्यक्तियों की त्वचा सूखी व रूक्ष दिखाई पड़ती है। हमारी त्वचा में पाई जाने वाली त्वगसीय ग्रंथि इसमें मुख्य निमित्त बनती है। इस ग्रंथि में कोलेस्ट्रोल, ओर्गेस्ट्रोल तथा वसीय अम्ल आदि तत्त्व रहते हैं जिसके कारण त्वचा सदैव चिकनी और मुलायम बनी रहती है। जब इस ग्रंथि में इन तत्त्वों की कमी हो जाती है तो त्वचा रूक्ष और सूखी हो जाती है। विशेष रूप से सर्दियों के दौरान इस ग्रंथि में इन तत्त्वों की कमी हो जाती है। फलतः त्वचा फट जाती है और खुरदरी भी हो जाती है। त्वगसीय ग्रंथि के इन तत्त्वों की तुलना स्पर्श नामकर्म के साथ की जा सकती है। इसके उदय से प्राणी का शरीर स्निग्ध, रूक्ष आदि स्पर्श युक्त होता है। यद्यपि प्रत्येक प्राणी के शरीर में शीत, उष्ण, रूक्ष, स्निग्ध, लघु, गुरु, मृदु, कर्कश-ये आठ स्पर्श होते हैं किंतु जिस प्राणी में जिस प्रकार के वर्ण, गंध आदि का विशेष उदय होता है उस समय उस प्राणी में उसी प्रकार त्वचा की स्निग्धता और रूक्षता की तुलना स्पर्श नामकर्म के साथ की जा सकती है। । प्रत्येक प्राणी के अंग और उपांग अलग-अलग होते हैं। उन सबका शरीर में एक व्यवस्थित स्थान और क्रम है । एक गाय के कान का स्थान और एक मनुष्य के कान का स्थान भिन्न है, किंतु मानव शरीर में वह प्रायः उसी स्थान में समान रूप में होता है। भिन्न-भिन्न जातियों के प्राणियों में इन अंग-उपांगों का स्थान निर्धारण कौन करता है? शरीर विज्ञान के पास इसका समाधान है गुणसूत्रों में पाये जाने वाले भिन्न-भिन्न आदेश एवं D.N.A. और R.N.A. नामक रसायन । कर्म शास्त्रीय दृष्टि से अंगोपांग नाम कर्म को इसका संवादी तत्त्व कहा जा सकता है। विशेष बात यह है कि विज्ञान की पहुंच केवल मानव और पशु-पक्षियों तक ही है, जबकि अंगोपांग नामकर्म का क्षेत्र बहुत विशाल है। 66 - तुलसी प्रज्ञा अंक 118 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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