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4.अर्धनाराच-इसमें हड्डियों के किनारे एक ओर से गुंथे हुए होते हैं। इसे अर्धनाराच अस्थि संरचना कहते हैं।
5. कीलिका-कुछ व्यक्तियों की हड्डियां परस्पर एक-दूसरे से जुड़ी हुई होती हैं। ऐसी अस्थि संरचना को कीलिका कहते हैं।
6.सेवार्त-कुछ शरीर में अस्थियां जुड़ी हुई नहीं होती, केवल आमने-सामने होती हैं। इसे सेवार्त कहते हैं । इस प्रकार हमारे शरीर में साधना और स्वास्थ्य दोनों दृष्टि से इन छ: प्रकार के संहनन का बहुत महत्त्वपूर्ण स्थान है। अस्थि संरचना के संबंध में इस प्रकार का विवेचन जैनदर्शन के अतिरिक्त अन्यत्र कहीं भी उपलब्ध नहीं होता है।
वर्तमान में भी हम देखते हैं कि अस्थि संरचना की दृष्टि से व्यक्ति भिन्न-भिन्न प्रकार के होते हैं। कुछ मनुष्यों की क्षमता इतनी कम होती है कि सामान्य-सी चोट से हड्डी क्रेक हो जाती है जबकि कुछ व्यक्तियों के भयंकर दुर्घटनाग्रस्त होने पर भी बाल बांका तक नहीं होता। शरीर विज्ञान की दृष्टि से इसके क्या-क्या कारण हो सकते हैं? यह तुलनात्मक अध्ययन का विषय है।
कर्मवाद के अन्तर्गत शरीर संरचना की दृष्टि से नाम कर्म इतना शक्तिशाली है कि कोई जीव उसकी रचना का प्रतिवाद नहीं कर सकता। उसके निर्माण के अधीन परतंत्र होकर उसे शरीर रूपी कारागार में रहना पड़ता है। अत: जीवों के शरीर और उससे संबद्ध सारी रचना नामकर्म के अधीन है। कोई भी जीव इस विषय में स्वतंत्र नहीं है।
संक्षिप्त रूप से नामकर्म और शरीर-रचना-विज्ञान की तुलना करने पर ऐसा प्रतीत होता है कि कर्मवाद कई सन्दर्भो में विज्ञान के लिए मार्गदर्शक बन सकता है। ऐसे कई बिन्दु हो सकते हैं जो आने वाले दशकों अथवा शताब्दियों में वैज्ञानिकों के लिए हाइपोथिसिस के विषय बन सकते हैं। सीमा सापेक्ष होने के कारण यह विषय का प्रारम्भ मात्र है, पूर्णता नहीं।
संदर्भसूची1. गाथा-16/1-2 2. अभिधम्मकोश-4/1 3. कर्म बंधन और मुक्ति की प्रक्रिया-चन्दनराज मेहता, पृ. 82 4. पणवन्ना-23/1 5. गो. कर्मकांड, कर्मग्रंथि प्रथमभाग--- पंडित सुखलाल 6. कर्म बंधन और मुक्ति की प्रक्रिया 7. मनोविज्ञान के सिद्धांत एवं सम्प्रदाय- डॉ. आर.के. ओझा, पृ. 368 8. शरीर क्रिया विज्ञान - कांति पाण्डेय, प्रमिला वर्मा, पृ. 484 9. जैन तत्त्व विद्या-आचार्यश्री तुलसी, पृ. 94-95 10. कर्म विज्ञान
सम्पर्क सूत्र- जैन विश्व भारती
लाडनूं (राजस्थान)
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तुलसी प्रज्ञा अंक 118
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