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प्रज्वलित होती है, बुझती नहीं। अत: निर्वाण का अर्थ भी यहां 'बुझना' की अपेक्षा 'दीप्ति' अधिक उपयुक्त है। जिसका जीवन धर्मानुगत होता है वह आत्मरमण से निरन्तर सुख को प्राप्त करता हुआ दीप्तिमान बनता है। भारुंडपक्खी (भारुण्डपक्षी)
काव्य-जगत् में स्वछन्द व्यक्तित्व के लिए प्रायः 'पक्षी' प्रतीक का प्रयोग होता है। यहां अप्रमत्त अवस्था का प्रतीक भारुण्ड पक्षी है। जैन साहित्य में यह व्यापक स्तर पर प्रचलित प्रतीक है
सुत्तेसु यावी पडिबुद्धजीवी न वीससे पंडिए आसुपन्ने ।
घोरा मुहुत्ता अबलं सरीरं भारंडपक्खी व चरप्पमत्तो ।।14 आशुप्रज्ञ पंडित सोए हुए व्यक्तियों के बीच भी जागृत रहे । प्रमाद में विश्वास न करे। काल बड़ा घोर होता है। शरीर दुर्बल है। इसलिए भारुण्डपक्षी की भांति अप्रमत्त होकर विचरण करे। कवि का प्रतीक संदेश स्पष्ट है कि मृत्यु का कोई निश्चित समय नहीं है, क्षण भर भी प्रमाद मत करो। प्रमादी के चारों ओर से भय है। अप्रमादी अभय होकर विचरण करता है, अत: भारुण्ड पक्षी की तरह अप्रमत्त होकर विचरण करो।
भारुण्ड पक्षी प्रमाद रहित, लक्ष्य के प्रति सदा जागरूक एवं सतत प्रयत्नशील तथा संयम से युक्त होता है। अप्रमत्तता के इन्हीं गुणों को उद्घाटित करने ‘भारुण्ड पक्षी' को प्रतीक बनाया गया है। पत्तं ( पात्रं)
पक्षी के सौन्दर्य को बढ़ाने वाला तथा निरन्तर उसके साथ रहने वाला उपकरण 'पत्तं' भिक्षु के भिक्षापात्र का प्रतीक बन गया है
सन्निहिं च न कुव्वेजा लेवमायाए संजए।
पक्खी पत्तं समादाय निरवेक्खो परिव्वए । संयमी मुनि पात्रगत लेप को छोड़कर अन्य किसी प्रकार के आहार का संग्रह न करे। पक्षी अपने पंखों को साथ लिए उड़ जाता है वैसे ही मुनि अपने पात्रों को साथ ले, निरपेक्ष हो परिव्रजन करे।
श्लेष पर आधारति यह प्रतीक है। 'पत्तं' के दो अर्थ होते हैं-पत्र/पंख और भिक्षा-पात्र । कवि अभिप्रेत संप्रेष्य कथ्य यह है कि जैसे पक्षी अपने पंखों को साथ लिए उड़ता है, इसलिए उसे पीछे की कोई चिन्ता नहीं होती। वैसे ही भिक्षु अपने पात्र आदि उपकरणों को जहां जाए वहां साथ ले जाए, संग्रह कर न रखे, पीछे की चिन्ता से निरपेक्ष होकर विहार करे। 44 -
तुलसी प्रज्ञा अंक 118
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