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कर्मबंध की प्रक्रिया
-साध्वी श्रुतयशा
अध्यात्म का केन्द्र है-आत्मा। आत्मा के पारमार्थिक या शुद्धस्वरूप का विवेचन करते समय उसके व्यावहारिक स्वरूप पर विमर्श करना भी अपेक्षित हो जाता है । दृश्यमान जगत की विभिन्नता एवं विचित्रता का यौक्तिक समाधान हैकर्मवाद । कर्म की स्वीकृति के बिना जीव के वैभाविक स्वरूप का प्रतिपादन सम्भव नहीं । अत: कर्मवाद अध्यात्म-विद्या का महत्त्वपूर्ण अध्याय है।
बंध का सामान्य अर्थ है-संश्रेष, अनेक पदार्थों का एकीभाव। वह तीन प्रकार का हैजीवबंध- जीव के पर्यायभूत रागादि प्रत्यय जो उसे संसार व धन
परिजन के साथ बांधते हैं। अजीवबंध- परमाणुओं में पाए जाने वाले स्निग्ध व रुक्ष स्पर्श जो परमाणु
स्कन्ध बनाते हैं। उभयबंध- जीव के प्रदेशों के साथ होने वाला कर्म-परमाणुओं का सम्बंध
इस आलेख में उभयबंध की प्रक्रिया का निरूपण किया जा
रहा है। सभी आस्तिक दर्शन जगत-वैचित्र्य का हेतु कर्म को मानते हैं। वेदान्त दर्शन कर्म को अविद्या, बौद्ध वासना, सांख्य क्लेश, न्याय-वैशेषिक अदृष्ट या धर्माधर्म तथा मीमांसक उसे अपूर्व कहते हैं। जैनदर्शन के अतिरिक्त प्रायः सभी दर्शन कर्म को संस्कार या वासना रूप मानते हैं, अत: उभय बंध की प्रक्रिया वहां स्पष्टतः परिलक्षित नहीं होती। जैनदर्शन कर्म की पौद्गलिक सत्ता स्वीकार करता है, क्योंकि जो जिस वस्तु का गुण या पर्याय होता है वह उसका विघातक या आवारक नहीं होता। कर्म आत्मा के लिए आवरण, पारतंत्र्य एवं दुःख के हेतु हैं। अत: वे केवल संस्कार या
वासना मात्र नहीं। वे बेड़ी एवं शराब के समान पौद्गलिक हैं। बेड़ी या शराब स्थूल तुलसी प्रज्ञा अक्टूबर-दिसम्बर, 2002
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